________________
३२२
गाथा-९७
जाएँगे तेरे घर? ऐसे यहाँ कहते हैं; रोकड़िया धन्धा है। भगवान आत्मा अपने स्वभाव से भरपूर पदार्थ है, उसे भूलकर जितने विकारी भाव करे, वह रोकड़िया दुःख है, उसी क्षण में उसे दुःख है। ठीक होगा यह ? यह सब लहर करते दिखते हैं न? यह सब पैसा, खाना - केला, पूड़ी उड़ावे, दूध-पाक और अरबी के गरम-गरम भुजिये और उसमें फिर जवान इकट्ठे हुए हों और उसमें पाँच-पचास लाख की आमदनी हुई हो और फिर देखो इनका जलसा उड़ता हो । यह सुख होगा या क्या होगा?
कहते हैं कि भाई! आत्मा आनन्दस्वरूप है, प्रभु! वह अतीन्द्रिय समाधि का पिण्ड प्रभु है। जैसे चैतन्यपिण्ड है, वह ज्ञान की अपेक्षा से; आनन्द पिण्ड है, वह सुख की अपेक्षा से; ऐसे चारित्र का पिण्ड है, वह समभाव की अपेक्षा से (है)। समझ में आया? यह समाधि समभाव। यह समभाव का पिण्ड है और वह सुख का पिण्ड कहा, (इसलिए) वह प्रत्येक एक-एक गुण का वह पिण्ड है। एक-एक गुण से पूरा भरा पड़ा है, एक गुण सर्व व्यापक है न? इसलिए एक गुण से देखो तो एक गुणमय ही सब इकट्ठा है – ऐसे आत्मा को अन्तररुचि और ज्ञान में न लेकर पर-पदार्थ की रुचि और ज्ञेय बनाकर पर का ज्ञान करने से, उसमें राग-द्वेष की उत्पत्ति करके, पर की श्रद्धा और पर का ज्ञान तथा पर सम्बन्धी पुण्य-पाप के, राग-द्वेष के विकल्प, बस ! यह दुःखरूप है। समझ में आया?
उसे कहते हैं कि वर्जकर 'परम शांति लहंति' भगवान आत्मा दुःख के दावानल के विकल्प की जाल को छोड़े अर्थात् भगवान आत्मा आनन्दस्वरूप अथवा समरस वीतरागस्वरूप में एकाकार होने पर उसे समरस का – शान्ति का स्वाद आवे, यह उसे धर्म कहते हैं। आहा...हा...! धर्म की अद्भुत व्याख्या, भाई! यह सामायिक की बात अपने दोपहर में आ गयी है और अभी इसमें भी सामायिक की बात आएगी। सामायिक में आनन्द आना चाहिए - ऐसा कहते हैं। भगवानजीभाई ! यह सामायिक किसी दिन सुनी नहीं (होगी)। सम + अय + लाभ = समता का लाभ। प्रगट, हाँ! स्वरूप में तो समता का पिण्ड ही आत्मा है परन्तु उसे पुण्य-पाप के विकल्प की वृत्ति से हटकर; और यहाँ से हटे तब कहीं एकाग्र होगा न! यह अपना आनन्द अथवा समतास्वरूप, चारित्रस्वरूप;