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गाथा-९७
वज्जिय सयल-वियप्पइ परम-समाहि लहंति।
जं विंदहिं साणंदु क वि सो सिव-सुक्खं भणंति॥९७॥ सर्व विकल्प को छोड़कर, देखो! विकल्प है अवश्य... आत्मा अपने आनन्द और अनन्त गुण के शुद्धस्वभाव से कभी रहित हुआ ही नहीं, तथापि अनादि से उसकी दशा में, दशा अर्थात् हालत में, राग के विकल्प – वासना है। समझ में आया? पुण्य-पाप के विकल्प अर्थात् वासना-विकृति, वृत्ति है। उसे छोड़कर... अनादि से दशा में कहीं शुद्ध नहीं है। स्वभाव से शुद्ध कभी खाली नहीं है, यह अलग बात हुई परन्तु उसकी दशा में – हालत में अनादि से शुद्ध है – ऐसा नहीं है। अनादि से शुद्ध हो तो उसे शुद्ध करने का प्रयत्न – पुरुषार्थ कुछ नहीं रहता; इसलिए अनादि से उसकी दशा में अपने स्वभाव को भूलकर पर स्वभाव के लक्ष्य से अनेक प्रकार के शुभ और अशुभभाव उत्पन्न करता है, वह दुःखरूप दशा है, उसे छोड़कर... ऐसा कहा है।
यह तो बहुत संक्षिप्त में बात है न, एकदम सार... सार... सार... है। योग अर्थात् मोक्ष का मार्ग; उसका भी यह सार । जैसे नियमसार... नियम अर्थात् मोक्ष का मार्ग, सार अर्थात् व्यवहार, विपरीतता आदि; निश्चय से विपरीत व्यवहार, उससे रहित। भगवान आत्मा, जिसे आत्मा के हित की लगनी है (कि) अरे! अनन्त काल से यह आत्मा भटका, इसकी दया इसे आती हो, अरे! यह कितना भटका... आहा...हा...! कहीं काल का अन्त नहीं और भाव के दु:ख की कल्पना का पार नहीं। इसलिए पहले से शुरु किया है न!'चार गति दुःख से डरे...' यह कोई बात की बात नहीं है। इसे ऐसा लगना चाहिए कि मैं एक आत्मा हूँ और यह चीज और यह अनादि काल से परिभ्रमण के दुःख क्या है ? परिभ्रमण चार गति के चौरासी के अवतार – ऐसे इसके दुःख की ही दशा और दुःख की ही खान संसार है । ऐसा जिसे लगे, उसे कहते हैं कि आत्मा का हित करना हो तो यह विकल्प की जाल जो शुभ-अशुभ आदि संसार, विकारभाव, उसका लक्ष्य छोड़ दे। पहले उसका लक्ष्य छोड़ दे और वस्तुस्वभाव अनन्त आनन्द और शान्ति समाधि से भरपूर यह (आत्मा) पदार्थ है – ऐसा विश्वास कर। अर्थात् उसका सम्यग्दर्शन प्रगट कर। समझ में आया?