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परम समाधि शिवसुख का कारण है
वज्जिय सयल - वियप्पड़ परम-समाहि लहंति ।
जं विंदहिं साणंदु कवि सो सिव- सुक्खँ भांति ॥ ९७ ॥
तजि कल्पना जाल सब, परम समाधि लीन ।
वेदे जिस आनन्द को, शिव सुख कहते जिन ॥
अन्वयार्थ - (सयल - वियप्पइ वज्जिय) सर्व विकल्पों को त्यागने पर (परम समाहि लहंति ) जो परम समाधि को पाते हैं, (जंक वि साणंदु विंदहिं) तब कुछ आनन्द का अनुभव करते हैं (सिव सुक्खँ भांति ) इसी सुख को मोक्ष का सुख कहते हैं ।
वीर संवत २४९२ श्रावण शुक्ल ४,
गाथा ९७ से ९८
शुक्रवार, दिनाङ्क २२-०७-१९६६ प्रवचन नं. ४१
योगीन्द्रदेव कृत यह योगसार शास्त्र । योगसार का अर्थ यह है कि वास्तविक आत्मा का जो स्वरूप है, उसमें एकाग्र होने की क्रिया को यहाँ योगसार कहते हैं । राग - द्वेष, पुण्य-पाप के विकल्प में तो अनादि का एकाग्र है, वह तो संसार है, दुःखरूप है। विकार का अनुभव है संसार का; उससे योग अर्थात् आत्मा के शुद्धस्वरूप में, पवित्र आत्मा, अपना आत्मद्रव्य, अपने स्वभाव से खाली नहीं है । वस्तु स्वयं है, वह वस्तु स्वभाव से रहित - खाली नहीं होती, उसका त्रिकाल स्वभाव आनन्द और ज्ञान है। ऐसे स्वभाव से रहित नहीं हो सकता। ऐसे आत्मा में एकाकार होने को यहाँ योगसार कहते हैं, उसे यहाँ मोक्ष का मार्ग कहते हैं । ९७... अनन्त सुख का अथवा परम समाधि शिवसुख का कारण है।