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________________ गाथा - ९५ ३०६ नहीं - ऐसा उसका गुण है । आहा... हा...! और उस गुण का गुण अर्थात् कार्य, भगवान आत्मा, अपने आनन्द को प्रत्यक्ष करके यह आत्मा है - ऐसा जाने वैसा उसमें गुण है। आहा... हा...! समझ में आया? तब इसने सर्व शास्त्र जाने ऐसा कहा जाता है । आहा... हा...! भले ही शास्त्र कम-ज्यादा आवे, जबाव देना भी न आवे, बोलना भी न आवे, उसके साथ कुछ सम्बन्ध नहीं है । भाषण होना, या न होना यह तो जड़ की अवस्था है, यह कहीं उपदेश देना आया इसलिए जीव को लाभ है (ऐसा ) बिल्कुल नहीं है । आहा... हा.... ! मुमुक्षु - उपदेश दे तो घोलन होता है। पूज्य गुरुदेवश्री - परन्तु किसका घोलन ? यह तो ज्ञान का अन्दर का घोलन स्वयं में है, यह कहीं वाणी द्वारा है ? और विकल्प उत्पन्न हुआ है उसके द्वारा अन्दर संवर - निर्जरा है ? भाई ! यह तो मार्ग अलग प्रकार का है। यह प्रभु का मार्ग है। समझ में आया ? वह स्वयं परमेश्वर है, वीतरागस्वरूप का परमेश्वर है । वीतरागपने में जितना स्वभाव में एकाग्र होता है, उतना ही उसे संवर और निर्जरा का लाभ है। वाणी से कोई लाभ नहीं और विकल्प से कुछ लाभ नहीं । आहा... हा... ! समझ में आया ? ऐसा आत्मा, उसे जाने, उसकी रुचि प्राप्त करे और उसके स्वभाव का स्वाद आवे, वह आनन्द का अनुभव आया मानो क्योंकि शुद्धात्मा का अनुभव ही मोक्षमार्ग है । यह भगवान शुद्धस्वरूप आत्मा, इसका अनुभव करना, वेदन करना, वेदनसहित जानना, वेदनसहित रुचि करना, वह मोक्ष का मार्ग है । जगत् को बहुत कठिन पड़ता है, वे कहते हैं कि बाहर से होगा, शुभयोग से होगा, देव-गुरु-शास्त्र से होगा, भगवान से होगा। भाई ! यह ठगाई हो गयी है, हाँ ! मायाचारी होगी, प्रभु ! यह भगवान ऐसे नहीं पकड़ में आयेगा, उसका यह गुण नहीं है पर से ज्ञात हो, राग से ज्ञात हो, निमित्त से ज्ञात हो - ऐसा उसमें गुण नहीं है। ऐसा गुण नहीं है और ऐसे गुणवाला मानना, यह तो उसने आत्मा को नहीं माना । आहा...हा... ! समझ में आया ? शुद्धस्वरूप की भावना भाने से आत्मा शुद्ध होकर परमात्मा हो जाता है। इस शुद्ध परमात्मा का प्रत्यक्षपने वेदन होने पर, प्रत्यक्ष होते... होते... पूर्ण होने पर
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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