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________________ योगसार प्रवचन (भाग - २) २७५ लगता है कि यह भोग करते हैं, अन्तर से दुःख लगता है, वह राग मिटता नहीं, स्वरूप की स्थिरता की कमजोरी है, इसलिए राग आता है परन्तु दुःख लगता है, उपसर्ग आया ऐसा लगता है, जैसे रोग का उपसर्ग आया हो, ऐसे ज्ञानी को भोग की वासना उपसर्ग और रोग लगता है । आहा...हा... ! समझ में आया ? और मूढ़ मिथ्यादृष्टि को उस भोग की वासना में मिठास लगती है । इतना दृष्टि में अन्तर है। अब उस दृष्टि की कीमत कहाँ लाना, करना ? समझ में आया ? यहाँ कहते हैं - अपने आत्मा का आत्मारूप श्रद्धान, ज्ञान, उसमें ही रमना अर्थात् आत्मानुभव ही निश्चय रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग है। इसकी व्याख्या की है। इस शब्द की व्याख्या है, वह इसमें नहीं, वह दूसरी पुस्तक है। अकेले श्लोक का ही अर्थ है। यह हिन्दी है न? भगवान आत्मा देह - देवल में, स्त्री की देह हो तो मिट्टी है, ऊपर चमड़ी लिपटी है। भगवान आत्मा उसरूप कभी नहीं हुआ, सोने की ईंट को लाख कपड़े, कपड़े, जीर्ण, नये-पुराने, बाघ के, हिरण के चित्र से भी वह सोने की ईंट उस चित्रामरूप और कपड़ा रूप कभी नहीं होती। इसी प्रकार भगवान अन्दर सोने की ईंट है, उस पर कपड़ा किसी को पुरुष का, किसी को स्त्री का, किसी को नपुंसक का, किसी को हाथी का, और किसी को कन्थवा का। यह सब ऊपर मिट्टी का लेप है, वस्तु भगवान चिदानन्द आनन्दकन्द भिन्न तत्त्व है। समझ में आया ? यहाँ‘समसुक्ख णिलीणु' शब्द है न ? आहा... हा... ! भाई ! तेरी दशा कौन ? तू कौन ? भाई ! तू कौन ? तू अर्थात् कि अतीन्द्रिय आनन्द का पिण्ड, वह तू । भाई ! यह शरीर, वाणी, मन तू? यह पुण्य - पाप के भाव होते हैं, वह तू ? भगवान तू विकार ? भगवान तू अजीव ? या भगवान तू जीव? आहा... हा... ! तो जीव अर्थात् क्या ? आनन्द और शान्ति के जीवन से भरपूर भगवान को जीव कहते हैं । आहा... हा.... ! कहते हैं, भाई ! इस हिरण की नाभि में कस्तूरी परन्तु उसे उसकी महिमा नहीं। इसी प्रकार भगवान कहते हैं, बापू ! तेरे आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द और सर्वज्ञपद आत्मा में पड़ा है। वे सर्वज्ञ परमेश्वर केवलज्ञानी होते हैं, वे कहाँ से लाये केवल ? बाहर से आता है ? चौसठ पहरी चरपराहट कहाँ से आयी ? पत्थर से आयी ? कल्याणजीभाई ! यह मेरे में ऐसा है ? एक बीड़ी बिना
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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