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गाथा-९३
प्रभु! तेरा मार्ग अलग है प्रभु, भाई ! दुनिया माने और मनावे, इससे कहीं वीतराग का मार्ग नहीं हो जाता। वीतराग परमेश्वर का मार्ग सम वीतरागभाव है। समसुख कहो या वीतरागभाव का आनन्द कहो। आहा...हा... ! वह वीतरागभाव का आनन्द अन्दर में आवे, वह वीतराग का मार्ग कहलाता है। जिसमें पुण्य और पाप का भाव तो रागभाव है; वह वीतरागमार्ग नहीं है। अद्भुत बात भाई! फिर भी (सम्यग्दृष्टि) राजपाट में कैसे रहता है ? भाई! उसे अभी आसक्तिभाव होता है, इसलिए राजपाट में दिखता है परन्तु वह आसक्ति को दुःख देखता है। वह आसक्ति को दुःख देखता है। सम्यक्त्वी को भोग की वासना आती है परन्तु उसे उपसर्ग... उपसर्ग... काला नाग देखता है। आहा...हा... ! सम्यग्दृष्टि आत्मा के आनन्द के स्वाद के समक्ष यह पाप की वासना जहाँ भोग की आती है, उसे काला नाग देखता है। अरे... ! यह दुःख जहर है। समझ में आया? उसकी स्थिरता नहीं है, इसलिए इतना (भाव) आता है परन्तु उसमें उसे प्रेम और रुचि नहीं है, आहा...हा...! समझ में आया?
सम्यक्त्वी को यह इन्द्राणी होती है। है न अभी? शकेन्द्र है न? सौधर्म देवलोक का शकेन्द्र अभी है, एकावतारी, हाँ! एकावतारी। उसकी रानी भी एक भवतारी है। शचि -पति दोनों एक भवतारी हैं। सौधर्म देवलोक में बत्तीस लाख विमान का स्वामी है। सम्यक्त्वी, क्षायिक सम्यक्त्वी है। उसकी रानी (इन्द्राणी) सम्यक्त्वी है, दोनों एक भव करके मोक्ष जानेवाले हैं। उसमें पड़े होने पर भी कहीं आनन्द नहीं देखते; वे आनन्द अन्दर में देखते हैं। बत्तीस लाख विमान और एक-एक विमान में कितने में ही तो असंख्यात देव हैं।
मुमुक्षु – शचि इन्द्राणी क्षायिक सम्यक्त्वी है।
उत्तर – क्षायिक का मैंने नहीं कहा। सम्यक्त्वी इतना कहा, सम्यक्त्वी इतना ही कहा, क्षायिक कहीं स्त्री में नहीं होता, वहाँ नहीं होता। फिर आयेगा, परन्तु सम्यक्त्वी इतना कहा । वह क्षायिक सम्यक्त्वी है, शकेन्द्र क्षायिक सम्यक्त्वी है और उसकी रानी है, वह सम्यक्त्वी है। दोनों मनुष्य होकर मोक्ष जानेवाले हैं, अभी स्वर्ग में विराजमान हैं । इस देव की इतनी फिर एक-एक इन्द्राणी इतनी अधिक होती हैं, करोड़ों अप्सरा... लोगों को ऐसा