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गाथा-९२
कितनी सत्ता में होती है, यह याद भी न हो, उसके साथ क्या सम्बन्ध है ? भगवान आत्मा पूरा है, उसका पूछ न, उसका कह न, उसका उत्तर माँग न? भाई! आता है न उसमें, नहीं? बहुत बोल, ग्यारह बोल आते हैं। योगसार में ग्यारह बोल आते हैं। योगसार में आ गया है, अपने सब उतर गया है। बहुत समय से बहुत बातें आती हैं । आत्मधर्म में तो बहुत प्रकार आ गये हैं परन्तु.... आत्मधर्म को वे कहते हैं, ए.... एकान्त है। भगवान ! उसे दृष्टि में नहीं समाता न, इसलिए ऐसा लगता है। भाई! उसे धीरे से देखना चाहिए। ऐसा का ऐसा पक्ष से और आग्रह से नहीं देखा जाता। समझ में आया? न्याय से देखना चाहिए न?
मोक्ष के प्रेमियों का कर्तव्य है कि वे आत्मा सम्बन्धी ही प्रश्न पूछे, उसका ही प्रेम करें.... समझे? हमें कितने ही गुप्तरूप से पूछते हैं महाराज! हमें ध्यान किस प्रकार करना? वे जानते हैं कि महाराज ध्यान करते हैं परन्तु ऐसा कोई ध्यान नहीं कि
ओम... ओम... किया करें। यह आत्मा वस्तु है, उसकी दृष्टि करके स्थिर होना, वह ध्यान है। अभी आत्मा के भान बिना ध्यान किसका? समझ में आया? उसका प्रश्न कर, उसे देख, उसे अनुभव कर । वह आत्मज्योति अज्ञानरहित है... भगवान में अज्ञान की गन्ध नहीं है। वह तो चैतन्य का नूर, पूर, सूर्य है । चैतन्य के नूर का पूर है। तेज, नूर अर्थात् तेज।
चैतन्य के तेज का पूर है, उसमें अन्धकार कैसा? सूर्य में अन्धकार होता है ? यह जड़ रजकण हैं, यह तो बहुत रजकणों की पर्याय की वैभाविकदशा है। यह तो एकद्रव्य अखण्ड, एकद्रव्य अखण्ड है। वह (सूर्य) तो बहुत रजकण का पिण्ड है। एकद्रव्य अखण्ड का तत्त्व, अकेले चैतन्य का पूर है, उसका प्रश्न कर।वह अज्ञानरहित परमज्ञानमय है और सबसे (भगवान ) महान है। कहो समझ में आया?
आत्मरसी जीव कर्मों से नहीं बँधता जह सलिलेण ण लिप्पियइ कमलणि पत्त कया वि। तह कम्मेहिं ण लिप्पियउ जइ रइ अप्प सहावि॥९२॥
पंकज रह जल मध्य में, जल से लिप्त न होय। रहत लीन निज रूप में, कर्म लिप्त नहिं सोय॥