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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - २ ) करे, वह वस्तु नहीं चलती। देखो! यह कणिका (लिखा है), हाँ ! परमार्थवचनिका...। सम्यग्दृष्टि का विचार सुनो, उसमें है । २५५ पाँचवें गुणस्थान में .... पाँचवाँ गुणस्थान, सर्वार्थसिद्धि के देव से भी बढ़ गया है । सर्वार्थसिद्धि के देव को किसी को चौदह पूर्व का ज्ञान (होता है)। यहाँ से ऐसा लेकर गया है न! उसे कुछ नहीं होता, थोड़ा (होता है) । विभाव हेय और स्वभाव आदरणीय - ऐसा अन्दर भान अनुभव के वेदन में हो गया। आगे बढ़कर स्थिर हुआ तो सर्वार्थसिद्धि के देव से भी शान्ति बढ़ गयी । आहा... हा... ! है ? जिसे पकड़ा, उसमें विशेष स्थिर हुआ, उसे अब क्या बाकी रहा ? पाँचवाँ गुणस्थान.... आहा... हा...! श्रावकदशा..., कहते हैं कि जहाँ शान्ति की स्थिरता बढ़ गयी है और यह प्रतिमाएँ जो हैं, वे भी वास्तव में तो विकल्प है, वह नहीं; अन्दर स्थिरता के अंश शान्ति के बढ़ते हैं, उसे वास्तविक निश्चय प्रतिमा कहते हैं । कहो, समझ में आया ? निर्मलता भी होती है... स्वरूपाचरण में अधिक स्थिरता होती है और निर्मलता भी होती है, पाँचवें गुणस्थान में ग्यारह श्रेणियाँ हैं । समझे न ? ग्यारह प्रतिमा । चढ़ते चढ़ते आगे बढ़ता है, लम्बी बात है । प्रमत्त गुणस्थान प्रत्याख्यान कषाय का उदय नहीं रहता... मुनि... मुनि... । स्वरूपाचरण में विशेषपने स्थिरता होती है। अप्रमत्त में संज्वलन कषाय का मन्द उदय है, तब अधिक निश्चलता होती है। (ऐसे) करते-करते बारहवें गुणस्थान में (पहुँचते हैं) । वीतरागता बारहवें में, वीतरागता तेरहवें में अन्तर्मुहूर्त में केवल (ज्ञान) । इष्टोपदेश में कहा है - मोक्ष के प्रेमियों का कर्तव्य है कि आत्मा सम्बन्धी ही प्रश्न पूछे... है ? मोक्ष के प्रेमियों का.... अपने व्याख्यान चल गये हैं । सब व्याख्यान उतर गये हैं । इष्टोपदेश (सब) व्याख्यान रिकार्ड हो गये हैं । मुमुक्षु - इस समय आपने राजकोट में यही शब्द कहे थे कि आत्मा की ही बात पूछना । उत्तर आत्मा... आत्मा.... आत्मा... करणानुयोग सब होओ, अब छोड़ना, कितनी तो हमें ही नहीं आती । करणानुयोग में इस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियाँ बँधती हैं -
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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