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गाथा-९१
का पुरुषार्थ करता है। लो! इस श्रद्धा के बल से, मैं शुद्ध हूँ-पूर्ण हूँ – ऐसा प्रतीति में ज्ञान में - भास में आया है तो पुरुषार्थ करके स्थिर होने का प्रयत्न करता है। बस! यह स्थिर हुआ, वह मोक्ष का मार्ग और संवर-निर्जरा है, बाकी सब बातें हैं। इतने उपवास किये इसलिए निर्जरा हो गयी... बल्लभदासभाई! वर्षीतप किया (इसलिए) निर्जरा हो गयी... उसका इतना काल गया, सन न अब! निर्जरा कहाँ से आयी? ए... नवरंगभाई ! भगवान आत्मा अपने आस्रव और कर्म से भिन्न, अपने स्वरूप से जैसा तत्त्व है, वैसा देखने से रागादि रहे, वे पृथक् – भिन्न रह गये। अतः ज्ञानी को द्रव्य में बन्ध नहीं, द्रव्य बन्धस्वरूप नहीं; अबन्धस्वरूप की दृष्टि हुई तो दृष्टि में भी बन्ध नहीं है। दृष्टिवान को बन्ध है ही नहीं। दृष्टिवान को बन्ध है ही नहीं - ऐसा कहते हैं। बन्ध, बन्धभाग में गया; अबन्धद्रव्य के अबन्ध परिणाम में वह बन्धभाव नहीं आया, नहीं आता। समझ में आया?
जब-जब स्वानुभव अथवा आत्मा में स्थिरता प्राप्त करता है, तब-तब पूर्व में बाँधे हुए कर्मों की बहुत निर्जरा होती है। दृष्टि का अनुभव, भान होने पर भी स्वरूप में निर्विकल्पपने अनुभव होवे तो बहुत निर्जरा होती है। समझ में आया? यह लोग कहते हैं न, भाई! शास्त्र की स्वाध्याय करने से निर्जरा होती है। अरे...! भगवान! सुन तो सही! परद्रव्य के लक्ष्य में निर्जरा कहाँ से आयी? आहा...हा...! अमृतचन्द्राचार्यदेव ने भी कहा, आया न? पर परिणति.... पण्डितजी ! हमारी विशुद्धि होओ, यह टीका करने से विशुद्धि होओ ऐसा पाठ है, लो! उसका अर्थ समझना चाहिए न! निर्जरा तो अपने स्वरूप की स्थिरता में ही होती है परन्तु टीका के काल में मेरा विकल्प तो है परन्तु उससे भिन्न मेरा घोलन है, उस घोलन से मेरी निर्जरा होती है।
मुमुक्षु - आत्मा की समीपता होगी?
उत्तर - आत्मा की समीपता और आत्मा में रहने से होती है; राग में रहने से होती है? अरे...! भगवान ! दोनों मार्ग ही भिन्न है। एक आस्रवमार्ग, एक संवरमार्ग या निर्जरामार्ग। निर्जरामार्ग तो अपने स्व के आश्रय में निर्जरामार्ग शुरु होता है। समझ में आया?
कहते हैं, गुणस्थानों की रीति प्रमाण बन्ध नियमित प्रकृतियों का होता है... थोड़ा बन्ध, वह बन्ध बन्धभाग में रहा। लम्बा विस्तार किया है, ठीक। कुछ नहीं। नीचे