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योगसार प्रवचन ( भाग - २ )
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मुमुक्षु : सुनते-सुनते अधिक समझ में आता है ?
उत्तर : इसलिए सुनने से, ऐसा? इसलिए वजन सुनने पर देता है, भाई ! हमारे पण्डितजी को पूछना पड़े न, क्या कहते हैं यह ? आहा... हा...!
भगवान कहाँ अनजाना है ? वह कहाँ ज्ञानस्वभावरहित है ? कि उसे दूसरे के द्वारा जाना जाए। आहा...हा... ! चैतन्य का पिण्ड प्रभु, चित्पिण्ड । चित्पिण्ड आया है न ? उसे दर्शन के अर्थ में लिया है । पिण्ड है, इसलिए पण्डित जयचन्दजी ने पिण्ड अर्थात् दर्शन के अर्थ में लिया है। सामान्य है न ? और प्रकाश के अर्थ में ज्ञान लिया है। चार बोल लिये हैं। सुप्रभात.... सुप्रभात। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख – ऐसा लिया है। एक कलश में चित्पिण्ड लिया है। समझ में आया ?
भगवान आत्मा..... अपना स्वरूप सम्यग्दृष्टि शुद्ध देखता है। अशुद्ध देखे, वह अपना स्वरूप है ? वह अपने स्वरूप में नहीं है - ऐसा ज्ञान करता है । उसका अर्थ आ गया है, भाई ! व्यवहार जाना हुआ प्रयोजनवान है। शास्त्र में इस शैली में बात की है । अपना स्वभाव शुद्ध है, पवित्र है, राग से भिन्न है - ऐसा स्वरूप है। ऐसा देखो, बाकी राग रह गया, परन्तु वह राग भिन्न रह गया। अपने स्वरूप में नहीं आया, परज्ञेय में गया तो व्यवहार जाना हुआ (प्रयोजनवान है) । निश्चय हुआ तो राग है, वह जाना हुआ प्रयोजनवान है, बस ! इतनी बात है । है, इतना ज्ञान करने योग्य है। समझ में आया ?
यह तो सम्यग्दर्शन से लेकर पहले से बात है। पहले से न हो तो राग से भिन्न स्वरूप है, विकल्प से भिन्न स्वरूप है - ऐसे स्वरूप का भान हुआ तो विकल्प अपने स्वरूप में नहीं है - ऐसा (भान) हुआ । परन्तु है तो अवश्य । समझ में आया ? स्वरूप शुद्ध परमात्मा निजानन्द प्रभु की दृष्टि में वस्तु शुद्ध है, पर्याय में भी वह विकार नहीं आता, एक नहीं
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होता । पर्याय में भी, द्रव्य में भी । द्रव्य में तो राग का एकत्व नहीं होता, क्योंकि उसमें नहीं है परन्तु दृष्टि में भी राग का एकत्व नहीं होता। भाई ! क्योंकि दृष्टि शुद्ध निर्मल पर्याय संवर निर्जरारूप है, उस संवर-निर्जरारूप पर्याय में आस्रव पर्याय कभी नहीं होती। आहा...हा... ! समझ में आया ?
इस श्रद्धान और ज्ञान के बल से सम्यग्दृष्टि जीव अपने आत्मा में स्थिर होने