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गाथा-९०
कहो, अनुकूल होवे तो ठीक, प्रतिकूल होवे तो अठीक – ऐसी दृष्टि मिथ्यात्व में थी। सम्यग्दर्शन में तो अनुकूल ठीक और प्रतिकूल अठीक – ऐसा कुछ है ही नहीं। कितना त्याग हो गया - ऐसा कहते हैं । सम्यग्दृष्टि सम्पूर्ण संसार का संयस्त है। आ गया न अपने - वास्तविक संयस्त वह है। राग व्यवहार भी आदरणीय नहीं, पर आदरणीय नहीं, यह सबका त्याग हो गया। (इसलिए) संयस्त यह है। अद्भुत बात, भाई ! जिसका आदर नहीं था, उसका आदर हआ. जिसका आदर था. उसका ज्ञान हो गया. ज्ञेय है. बस! गलाटखा गयी, दृष्टि गुलाट खा गयी। उसका माहात्म्य कौन करे? समझ में आया?
अज्ञान का नाश होते ही सम्यग्दृष्टि को परभावों में अहंकार और पर पदार्थों में ममकार बिल्कुल दूर हो जाता है। लो ! जब तक वह घर में रहता है, तब तक कर्म के उदय को उदय मानकर गृहस्थ के योग्य सब लौकिक क्रिया को आत्मा के कर्तव्य से भिन्न जानता है... यह रागादि, शरीरादि क्रिया मेरी नहीं है। उसमें लिप्त नहीं हो जाता, अन्दर में वैरागी रहता है। कहो, समझ में आया? सदा भेदविज्ञान द्वारा अपने शुद्ध आत्मा को भिन्न ध्याता है... धीरे-धीरे निर्मल होकर, साधु होकर केवलज्ञान को प्राप्त करता है।
सम्यक्त्व के समान कोई मित्र नहीं है, वही सच्चा मित्र है, जो संसार के दुःख से छुड़ाकर निर्वाण में पहुँचा देता है। लो, आत्मानुशासन का उद्धरण दिया है। शान्तभाव ज्ञान-चारित्र तप का मूल्य कंकर-पाषाण के समान है... सम्यग्दर्शन के बिना शान्तभाव, ज्ञान हो... बोधवृत्ततपसां पाषाणस्येव गौरवं पुंसः आहा...हा...! आचार्य ने क्या बात की है ! कंकर-पत्थर समान सम्यग्दर्शन के बिना तुच्छ है, यदि सम्यक्त्वसहित हो तो उनका मूल्य महान रत्न समान हो जाता है। सम्यक्ज्ञान आदि यथार्थ हो गये। कीमत सम्यग्दर्शन की है, समझ में आया? वह मुख्य है, वह पण्डित है, वह सर्वस्व है, वह स्वभावसन्मुख की गति करने में सम्यग्दर्शन मुख्य है । पर से विमुख
और स्व से सन्मुख... यह सम्यग्दर्शन मुख्य है। सम्यग्दर्शन जैसी कोई चीज जगत में महिमावाली नहीं है। केवलज्ञान, चारित्र की बात क्या करना परन्तु यह तो पहली चीज में सम्यग्दर्शन की इतनी महिमा की है। विशेष कहेंगे.....
(श्रोता - प्रमाण वचन गुरुदेव!)