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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) २३९ आत्मा और गुण मेरे... ऐसा । यह गुण मेरे, दूसरा कुछ मेरा नहीं है। पहले में कर्मजनित अपनी अवस्थाओं को मेरा मानता था कि मैं नारकी हूँ, तिर्यंच हूँ, मनुष्य हूँ, देव हूँ, सुन्दर हूँ,... ये सब मान्यता चली गयी। रोगी हूँ, निरोगी हूँ, क्रोधी हूँ,... सुन्दर हूँ। यह सुन्दर तो जड़ की दशा है, तू सुन्दर कहाँ से आया? मैं वक्ता हूँ, वक्ता जड़ की पर्याय है, वक्ता कहाँ से हुआ? समझ में आया? सबका अभिमान चला गया। मैं वक्ता हूँ, दो घण्टे ठीक से बोल सकता हूँ, हाँ! भगवान तेरे पास वाणी है ? तेरे पास विकल्प भी नहीं तो वाणी कहाँ से आयी? वक्ता तू है ? मूढ़ है। ऐसी दृष्टि समाप्त हो गयी। मैं तो वक्ता भी नहीं हूँ और मौन भी नहीं हूँ, वह तो जड़ की चीज है। समझ में आया? निरोगी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, स्त्री, पुरुष, नपुंसक, देह की (स्थिति है), मैं कहाँ हूँ। भगवान ! दुःखी, सुखी, पुण्य का कर्ता, पाप का कर्ता,... लो! सब चला गया। एक चैतन्य रवि-सूर्य उगा, चैतन्य रवि सूर्य सम्यग्दर्शन हुआ, वहाँ सब अन्धकार चला गया। जरा राग है, शुभभाव, तीर्थंकर गोत्र बाँधे उसका तो कर्ता होता है न? सम्यग्दृष्टि को ही ऐसा राग आता है परन्तु वह राग का कर्ता नहीं है, आ जाता है, बँध जाता है। परोपकारी हूँ – अज्ञानी ऐसा मानता है। मैं परोपकारी हूँ। कौन परोपकारी है ? तू क्या दूसरे का कुछ कर सकता है ? दानी हूँ, तपस्वी हूँ, तपस्या करता है, शरीर में बहुत तपस्या की, विद्वान हूँ, लो! इतना ज्ञान है कि हजारों शास्त्र हमें पानी के पूर की तरह याद है। पानी का पूर चलता है न, ऐसे... ऐसे...? उसमें क्या हुआ? भगवान ! वह तो बाहर की सम्पत्ति है। विद्वान हूँ – यह दृष्टि तो मूढ़ है । आहा...हा... ! मूर्ख हूँ और विद्वान हूँ, दोनों पर्याय का धर्म है; आत्मा को क्या है ? व्रती हूँ... लो! एक समय की पर्याय व्रती हुई, उसे अपनी मानता है। श्रावक हूँ, मुनि हूँ... यह भी वर्तमान पर्याय का अभिमान है। राजा हूँ, प्रधान हूँ, इसी प्रकार परवस्तुओं को अपनी मानकर ममता करता था कि मेरा धन है, खेत है, मकान है, गाँव है, राज्य है, मेरे वस्त्र हैं, आभूषण हैं... इत्यादि बहुत बात ली है। ऐसे अहंकार-ममकार में अन्ध होकर रात-दिन कर्मजनित संयोगों में ही क्रीड़ा किया करता था। समझ में आया? इष्ट का ग्रहण और अनिष्ट के त्याग में उद्यमी था....
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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