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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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पंचास्तिकाय में कहा है – धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय लोकपर्यन्त है । फिर आकाश है, लोकस्वभाव - ऐसा आया है। लोक का स्वभाव सुननेवाले को भगवान ने ऐसा कहा है। लोक का स्वभाव, आता है या नहीं ? लोक स्वभाव आता है। आचार्यों ने तो बहुत डाला है, बहुत स्पष्ट किया है, ओ.... हो...! कारण क्या! लाओ, बताओ । एक परमाणु दूसरे समय में चौदह ब्रह्माण्ड जाता है, पहले नीचे हो एकदम तल में, हाँ! सातवें नरक में और वहाँ से एक प्रदेश ऐसा ऊँचा आवे, बस ! इतना । एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में, दूसरे समय में वहाँ से ठेठ सिद्ध (शिला तक जाता है) । कारण कौन ? कारण निकालो ? कोई कारण बताओ ? न्याय से तो विचार करना पड़ेगा या नहीं ?
मुमुक्षु : उस समय का काल बलवान ।
उत्तर : काल क्या बलवान ? ऐ.... पण्डितजी ! भगवान ! यह स्वभाव अचिन्त्यता है प्रभु ! जड़ की एक समय की अचिन्त्यता ऐसी, तो आत्मा के एक समय के ज्ञान की पर्याय की अचिन्तता की क्या बात करना ?
मुमुक्षु : ऐसा माने तो निमित्त का जोर चला जाता है।
उत्तर : भाई ! निमित्त है, कौन इनकार करता है ? परन्तु निमित्त, निमित्त के घर में है। क्या यहाँ घुस गया है ? और उसके कारण यह पर्याय है ? निमित्त पहले नहीं था ? फिर निमित्त में क्या हुआ? एक समय में चौदह ब्रह्माण्ड चला तो कारण क्या ? लाओ, बताओ ? निमित्त कहो तो निमित्त कौन ? निमित्त तो सदा एक समान पड़ा है। भगवान ! ऐसा नहीं होता। उस स्वभाव की महिमा आनी चाहिए। ओ...हो... ! जिसे ज्ञान नहीं, और दूसरे समय में एक समय में चौदह ब्रह्माण्ड चला जाए। समझे ? गति की उग्रता का अपना स्वभाव है।
यह तो केवलज्ञान की एक समय की पर्याय किसे नहीं जाने ? आहा... हा... ! एक समय की, हाँ! परमाणु एक समय में ऐसा चला जाता है। यह तो तीन काल - तीन लोक अनन्तगुना हो तो भी जाने) ।
हाँ! वे कल कहते थे। देखो ! एक समय के इतने भाग पड़ गये, ऐसा रतनचन्दजी , चौदह ब्रह्माण्ड का चला न ? पण्डितजी ! तो एक समय में इतने भाग पड़े। अरे...!
ने कहा,