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योगसार प्रवचन (भाग-२)
तीन लोक में सम्यग्दृष्टि प्रधान है और सासय-सुक्ख - णिहाणु केवण - णाण वि लहु लहइ। अविनाशी सुख का निधान... अविनाशी सुख का निधान केवलज्ञान, हाँ ! पर्याय की बात है। अविनाशी सुख की पर्याय का निधान केवलज्ञान, उस केवलज्ञान को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है । केवलज्ञान को तो बुलाता है । सम्यक्ज्ञान, मतिज्ञान, केवलज्ञान को बुलाता है। समझ में आया ? गणधर को भी सर्वज्ञ का पुत्र कहा है । सर्वज्ञ का पुत्र ! ईशु कहते हैं कि ईश्वर का पुत्र । यह तो कहते हैं, गणधर, सर्वज्ञ का पुत्र है । आहा... हा... ! ऐसे यहाँ सम्यग्दृष्टि लघुनन्दन है । है या नहीं ? ' ते जगमाँहि जिनेश्वर के लघुनन्दन, जगमाँहि जिनेश्वर के लघुनन्दन' आता है न ? ' भेदविज्ञान जग्यो जिन्ह के घट, शीतल चित्त भया जिन चन्दन, कैलि करे शिवमारग माहि, जगमाँहि जिनेश्वर के लघुनन्दन' आहा...हा... ! वहाँ गणधर को सर्वज्ञ का पुत्र कहा है। यहाँ तो सम्यक्त्वी को केवलज्ञान का पुत्र कहा है, लघुनन्दन । साधु बड़े नन्दन हैं, सम्यक्त्वी लघुनन्दन हैं। अपना सर्वस्व सम्पूर्ण चैतन्य प्रभु में दृष्टि करके, उसके आश्रय से जहाँ प्रभुत्व प्रगट हुआ तो वह केवलज्ञान का लघुनन्दन ही है । आहा... हा... ! जब तक ऐसी अन्तर में महिमा न आवे और अपने क्षयोपशम ज्ञान की... समझ में आया ? या किसी राग की मन्दता की अधिकता दृष्टि में रहे और सम्यग्दृष्टि को, कि जो अपने स्वरूप की दृष्टि है, उसकी अधिकता, अपने से भिन्न अधिक है - ऐसा बहुमान न आवे, तब तक उसे स्वद्रव्य का आश्रयभाव प्रगट नहीं होता । आहा... हा... ! समझ में आया ?
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योगसार ! सम्यग्दर्शन सर्व गुणों में प्रधान है। अब थोड़ा विस्तार करेंगे। समस्त गुणों में मुख्य मूल तो यह है । 'दंसण मूलो धम्मो ' • भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव का वाक्य है। यहाँ चार वाक्य लिखे हैं। 'दंसण मूलो धम्मो', 'द्रव्यदृष्टि ही सम्यग्दृष्टि', ' दर्शनशुद्धि से आत्मसिद्धि', यहाँ 'पूर्णता के लक्ष्य से शुरुआत, वही वास्तविक शुरुआत है'। चार चाकले है। चार, समझ में आया ? दंसण मूलो धम्मो ... धर्म भले ही चारित्र परन्तु उसका मूल तो दर्शन है। मूलं नास्ति कुतोः शाखा – जहाँ मूल ही नहीं वहाँ वृक्ष कैसा, ज्ञान कैसा, तप कैसा, निर्जरा कैसी ? समझ में आया ?
कहते हैं, सम्यग्दर्शन सर्व गुणों में प्रधान है। इसके होते हुए ज्ञान सम्यग्ज्ञान