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योगसार प्रवचन (भाग-२)
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनैस्तन्मन्येव्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः । सम्यङ्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बन्धन्ति सन्तो धृतिम् ।
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( समयसार कलश १७३) महासिद्धान्त है । कहो, पाटनीजी ! इसमें वाद-विवाद का स्थान कहाँ है ? भाई ! भगवान आत्मा सर्वज्ञ परमेश्वर ने ऐसा कहा कि परद्रव्य को जिलाना - मारना, सुखी - दुःखी करना, तलवार हाथ में लेना, शरीर की क्रिया - यह सब आत्मा नहीं कर सकता और मैं कर सकता हूँ - ऐसा मानना, अध्यवसान अर्थात् दो द्रव्यों की एकताबुद्धि का मिथ्यात्व है। अतः भगवान ने जब दो द्रव्यों की एकताबुद्धि का पृथक् द्रव्य कराने को मिथ्यात्व छुड़ाया, परद्रव्य का अध्यवसान छुड़ाया तो आचार्य कहते हैं कि यह तो एकताबुद्धि छुड़ायी है परन्तु हम तो इसमें से निकालते हैं कि परद्रव्य के आश्रित जितने भाव-व्यवहार हैं, उन सबको भगवान छुड़ाते हैं । आहा... हा... ! निश्चयनयाश्रित... देखो ! ऐसी बात निकालते हैं.... यह व्यवहार जो है, वह मिथ्यादृष्टि का व्यवहार है । अरे... भाई ! अन्यआश्रयत्वात जो व्यवहार अन्य के आश्रय से उत्पन्न होता है, वह सम्यग्दृष्टि को भी त्याज्य है, मिथ्यादृष्टि को तो व्यवहार की बात ही कहाँ है ? समझ में आया ?
यहाँ तो कहते हैं, सर्वज्ञ परमेश्वर ने जब अपने आत्मा के अतिरिक्त परद्रव्य के कर्तापने का अभिमान-मिथ्यात्व छुड़ाया तो हम तो ऐसा जानते हैं कि परद्रव्य के आश्रित जो अपने में व्यवहार हुआ.... वह तो परद्रव्य का कार्य छुड़ाया, कार्य कर नहीं सकता इसलिए... परन्तु उसमें से हम तो ऐसा निकालते हैं कि परद्रव्य के आश्रय से जो होता है, उस व्यवहार को भी भगवान ने छुड़ाया है । आहा... हा... !' अन्यआश्रयत्वात' यह बात यहाँ कहते हैं ।
भाई! आत्मा वस्तु है, महान चैतन्य ज्योत है, उसके आश्रय से सम्यग्दर्शन होता है, उसके आश्रय से सम्यग्ज्ञान होता है, उसके आश्रय से उग्र पुरुषार्थ से सम्यक् चारित्र होता है, उसके आश्रय से शुक्लध्यान होता है, उसके आश्रय से केवलज्ञान होता है । समझ में आया ?