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गाथा - ८९
का कारण है। भगवान आत्मा एक सेकेण्ड के असंख्य भाग में पूर्ण शुद्ध चैतन्यघन आनन्दकन्द स्वतत्त्व है, उस स्वतत्त्व के आश्रय से अनन्त काल में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति जिसे हुई, उसे उससे हुई है। समझ में आया ? और बाद में भी जितना व्यवहार रहा उसे पराश्रय जानकर, स्व-आश्रय करके छोड़ता है, तो उसे केवलज्ञान अथवा शुक्ला से मुक्ति होती है । स्वाश्रयोनिश्चय पराश्रयोव्यवहार - सीधी बात है। इसमें तो कुछ इतने शास्त्र पढ़े तो समझ में आये - ऐसी कोई बात नहीं है। समझ में आया ?
यहाँ देवसेनाचार्य तत्त्वसार में कहते हैं कि कठिन - कठिन 'उग्गतवंपि कुणंतो' परन्तु ‘परदव्व बावडो' लक्ष्य पर के ऊपर है, राग पर है, निमित्त पर है, संयोग पर है, देव - गुरु पर है, तब तक उसे सम्यग्दर्शन भी नहीं होता । आहा... हा... ! समझ में आया ? पहले श्रद्धा में ऐसा निर्णय न कि मैं तो स्वद्रव्य के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्राप्ति करता हूँ; पर के आश्रय से मुझे बिल्कुल नहीं होता, क्योंकि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, आनन्द इन सभी पर्यायों का पिण्ड तो द्रव्य है। वह पर्याय कहीं राग में नहीं रहती, उस पर्याय की शक्ति राग में (नहीं रहती) । व्यवहार के राग में तो पर्याय की शक्ति रहती है ? निमित्त में रहती है ? यह पर्याय - निर्मल मोक्षमार्ग की पर्याय, इस पर्याय की शक्ति
द्रव्यगुण है। समझ में आया ? यह शक्ति राग में है ? व्यवहार विकल्प में है ? संहनन में है ? देह में है ? यह शक्ति पर देह में है ? समझ में आया ? सीधी बात और सरल बात है परन्तु इतनी अधिक गड़बड़ कर डाली है। शास्त्र की स्वाध्याय, ऐसा कर्ता और ऐसा वाद और विवाद...
भाई ! यहाँ तो कहते हैं कि 'लहइ ण भव्वो' भव्य जीव होने पर भी, उग्र तप करने पर भी, परद्रव्य के व्यवहार को न छोड़े... समझ में आया ? बन्ध अधिकार में भी अमृतचन्द्राचार्यदेव ने कहा है (कलश १७३) 'अध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै' भगवान ऐसा कहते हैं कि मैं परद्रव्य को जिलाता हूँ, मारता हूँ, सुखी-दुःखी करता हूँ, परद्रव्य की पीड़ा, एकत्वबुद्धि, यह तो मिथ्यात्व है। इस मिथ्यात्व का, परद्रव्य का आश्रय जब भगवान ने छुड़ाया तो आचार्य कहते हैं कि हम इसमें से निकालते हैं कि जितना परद्रव्य के आश्रित व्यवहार है, उसे भगवान आचार्य छुड़ाते हैं । पण्डितजी ! इस श्लोक में आया न, तुम्हें तो कण्ठस्थ है 'अध्यवसानमेवमखिलं '