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गाथा - ८९
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मेरे प्रत्याख्यान का भंग हुआ । आहार, पानी, बोलना, ऐसा विकल्प आया, यह तो भंग हुआ, फिर से प्रत्याख्यान लेता हूँ । ओहो...हो... ! ऐसी दशा ! स्वभाव के आश्रय से लीन होने का उपाय / मार्ग है। बीच में राग आता है, हो, व्यवहार है, बन्ध के कारण से हटना (और) स्वरूपानुभव में रहना, यही मार्ग है । कहो, समझ में आया ?
सम्यग्दृष्टि के गृहत्याग व साधु पद का ग्रहण तब ही होता है, जब उसके भीतर प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय न होने पर ... यह तो कुछ नहीं । पुरुषार्थ वृद्धिगत होता है। सहज वैराग्य जग जाता है। वह दृढ़तापूर्वक बिना परिणामों की उच्चता प्राप्त हुए किसी ऊँची क्रिया को धारण नहीं करता है।
सम्यग्दृष्टि तत्त्वज्ञानपूर्वक - भानपूर्वक द्रव्य-क्षेत्र - काल-भावपूर्वक प्रतिज्ञा लेता है। लोगों के साथ आवेश में आकर तत्त्वज्ञानी प्रतिज्ञा नहीं लेता है। आया था न ? भाई ! मोक्षमार्गप्रकाशक में । मोक्षमार्गप्रकाशक में आया है, यथाशक्ति । लोग ले लेते हैं इसलिए मैं ले लूँ (ऐसा नहीं)। मेरे पुरुषार्थ की जागृति, सहज पुरुषार्थ कितना काम करता है ? बस! इतना देखता है। उसमें कोई भंग नहीं पड़ता, उत्साह में शिथिलता नहीं आ जाये, उत्साह में शिथिलता न आवे कि बहुत बोझा हो गया, यह तो बोझ हो गया, अस्थिरता हो गयी, खेद हो गया। समझ में आया ? धर्मी जीव तो अपने परिणामों की उच्चता प्राप्त हुए बिना किसी ऊँची क्रिया को धारण नहीं करता ।
जब तक सहज वैराग्य न आवे व परिणामों के अनुसार श्रावक पद के भीतर रहकर यथासम्भव दर्शन-प्रतिमा से लेकर उद्दिष्टत्याग ग्यारहवीं प्रतिमा तक के चारित्र को पालकर आत्मानुभव के लिए अधिक अधिक समय निकलता है। पहली प्रतिमा, दूसरी प्रतिमा... शान्ति की वृद्धि है। जैसे-जैसे अन्दर शान्ति की वृद्धि होती है, वैसे-वैसे अनुभव में आगे बढ़ने का पुरुषार्थ करता है। समझ में आया ? फिर बहुत बात की है ।
देवसेनाचार्य तत्त्वसार में कहते हैं, लो !
लहइ ण भव्वो मोक्खं जावइ परदव्व बावडो चित्तो । उग्गतवंपि कुणंतो सुद्धे भावे लहुं लहइ ॥ ३५ ॥