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योगसार प्रवचन (भाग-२)
२१७ है? लोग पढ़ें न, उसमें क्या है ? पण्डितों के बीच इतनी चर्चा हुई, उसमें मध्यस्थरूप से वे थे। अपने बड़े पण्डित... चर्चा बाहर आवे तो क्या बाधा है? वे इनकार करते हैं, नहीं। यह लोग छापते हैं, १५२ पृष्ठ आये हैं, कितने हैं ? १५२ पृष्ठ आये हैं।
मुमुक्षु : सब चला है।
उत्तर : सब चला है। सब चला है, क्या? इसके लिए तो बात करते हैं, यहाँ आ गया है, १५२ पृष्ठ छपकर आ गये हैं। अभी फूलचन्दजी काम में हैं, ललितपुर में मकान बनाते हैं, रूक गये हैं, हम तो इन्तजार करते हैं कि क्यों आये नहीं? १५२ पृष्ठ आ गये, बाहर में प्रकाशित हो, उसमें क्या है ? दोनों की दलीलों को सुनेंगे, उसमें बाधा क्या है ?
और बड़े पण्डित तो मध्यस्थता में थे, बाहर आने दो, क्या है... है क्या? चर्चा बाहर नहीं छपाओ (ऐसा कहते हैं)। उसमें हानि-वृद्धि की क्या बात है? चीज क्या है वह समझेंगे, विचार करेंगे।
इन मुनि को छठे गुणस्थान में व्यवहार कार्यों में अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय लगे तो बीच-बीच में सातवाँ गुणस्थान क्षण भर के लिए आत्मानुभवरूप हो जाता है।आहा...हा... ! मुनि की दशा तो पौन सैकेण्ड की निद्रा छठवें गुणस्थान में आ जाती है। जरा आहार का विकल्प (आवे उतना) एकदम विकल्प छूटकर सातवें में (आ जाते हैं)। ओ...हो... ! यह चारित्र की रमणता ! सन्तपना, मुनिपना, परमेश्वरपद में मिल गये हैं। पंच परमेष्ठी! कहते हैं कि उनके ध्यान की लगन लग गयी है। आहा...हा...! आहार में आना, विकल्प आता है तो खेद होता है। अरे... ! हमारा अनाहारी अमृत भोजन (और यह क्या?)
मुमुक्षु : मुनि तो शुद्ध उपयोग में रहने की ही प्रतिज्ञा करते हैं।
उत्तर : प्रतिज्ञा ही शुद्ध उपयोग की है। जयधवल में ऐसा आया है कि मैंने तो शुद्ध उपयोग की प्रतिज्ञा की है, यह आहार का विकल्प आया तो मैंने प्रतिज्ञा तोड़ी है – ऐसा पाठ है। इसलिए मृत्यु के समय मैं फिर से शुद्धोपयोग ग्रहण करता हूँ, प्रत्याख्यान करता हूँ – ऐसा आता है। विकल्प उठता है – राग है, आता है परन्तु मैंने तो शुद्ध उपयोग की प्रतिज्ञा की है। मुझे तो शुद्ध उपयोग में रहना है, ऐसा पाठ है, हाँ! जयधवल में है। प्रत्याख्यान... मैंने प्रत्याख्यान तो (प्रतिज्ञा तो) शुद्धोपयोग में रहने का लिया था। यह क्या?