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योगसार प्रवचन (भाग-२)
२१५ हृदय में अकेले स्वभावसन्मुख होकर लीनता करना, वही जिसकी दृष्टि है। समझ में आया? ऐसा सम्यग्दृष्टि अपने स्वभावसन्मुखता में व्यवहार को छोड़कर ध्यान करता है, अनुभव करता है और उसमें रहना उसे ही ठीक मानता है। बाहर निकलना तो दु:ख... द:ख... रोग... रोग... रोग... जानता है। समझ में आया? आचार्य का हृदय यह है। 'छंडिवि सहु ववहारु' अपने निज स्वरूप की दृष्टि करनेवाला, अपने स्वरूप में रहने के लिए व्यवहार के विकल्प छोड़ देता है । समझ में आया?
तीर्थंकर के समान यथाख्यातरूप नग्न दिगम्बर पद धारण किया जावे, जहाँ बालक के समान सरल व शान्तभाव में रहकर, निर्जन स्थानों में आत्मा का अनुभव किया जावे। साधुपद में उतना ही व्यवहार रह जाता है... देखो! जिससे भिक्षावृत्ति द्वारा शरीर का पालन हो व जब उपयोग आत्मीक भाव में न रमे तब शुद्धात्मा के स्मरण करानेवाले शास्त्रों के मनन में व धर्मचर्चा में स्तुति वन्दना पाठादि पढ़ने में उपयोग को रखा जावे। यह शुभ है, परन्तु इस शुभ को भी छोड़कर शुद्ध में जाता है।
व्यवहार धर्मध्यान व धर्म की प्रभावना करना इतना व्यवहार रहता है। आहार, विहार व व्यवहार धर्म को करते हुए साधु इस व्यवहार से भी उदास रहते हैं,... उसमें उत्साह नहीं, होश समझे न? उत्साह नहीं, राग है न, राग। उल्लसित वीर्य, स्वभावसन्मुख है, उल्लसित वीर्य, स्वभावसन्मुख है जो मन्द रागादि हैं, उनमें उसका वीर्य उल्लसित नहीं, उदास है। उस ओर का आदर नहीं, बहुत अच्छा किया, बहुत अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ, ऐसा नहीं।
आत्मा के पुरुषार्थ की कमजोरी से उनमें वर्तते हैं, जैसे-जैसे आत्मज्ञान की शक्ति बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे यह व्यवहार भी छूटता जाता है तो भी साधुपद में इतनी अधिक आत्मरमणता का अभ्यास हो जाता है कि एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय आत्मा का अनुभव बिना नहीं रहते हैं। समाधितन्त्र में आता है न! पूज्यपादस्वामी... अतत्पर। विकल्प में तत्परता नहीं, कमजोरी से आता है, तत्परता नहीं। भगवान आत्मा शुद्धस्वभाव सन्मुख में उसकी तल्लीनता, बारम्बार भावना रहती है। समझ में आया?