SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४ गाथा-८९ प्लेग था, यह तो (संवत) १९५७ के साल, दीक्षा के बाद नहीं, यह तो संसार में (थे तब की बात है) १९५६-१९५७ के साल में प्लेग था, बड़ा प्लेग । गर्मी में हमें पता है, हम तो छोटे लडके. बालक.ढेला-दरवाजा हो (वहाँ) सात-आठ मरे हों. पडे हों और यह छप्पनिया में देखो न! मरे नहीं! छप्पनिया में दष्काल (था)। प्लेग नहीं.दष्काल पडा था. दु:काल पड़ा था, तब दरवाजे के बाहर एक ऐसा, एक ऐसा, एक मर गया हो, एक जीवित हो, मरने की तैयारी हो, ऐसा नजरों से देखा है। १९५६ में दस वर्ष की उम्र थी और १९४६ में जन्म। अभी नजर में झूलता है, हाँ! एक रोता था, एक मरता था, मर गया था, रात्रि में-जंगल में...यह सब तो नजरों से देखा है। दो भाईयों को रखा होगा। आगे पीछे मरे होंगे न? छप्पनिया के दुष्काल की बात है, लो! पेट खाली... मर गये। गेहूँ की गूंगरी देते, दरबार की तरफ से, गेहूँ... गेहूँ... । ऐसे मुट्ठी भरकर देते थे। खाये, फिर पानी पीवे और मर जाते। बहुत अधिक खाते... सब देखा था। हाँ! दस वर्ष की उम्र में देखा था। आहा...हा...! कोई शरण है ? भाई! पड़ा हो, मरता हो तो (कहे), भाई...! वह भी मरने पड़ा हो, करना क्या? करे कौन? आहा...हा... ! सम्यक्त्वी क्षणमात्र भी संसार में रहना नहीं चाहता। समझ में आया? है या नहीं अन्दर? जो जानता है कि निर्वाण का उपाय मात्र एक अपनी शुद्ध आत्मा के शुद्ध स्वभाव में लीनता है। चारित्र की प्रतीति हो गयी है, अपने स्वरूप में लीनता करना, वह चारित्र है और उस चारित्र के बिना कभी मुक्ति का दूसरा कोई उपाय है ही नहीं। समझ में आया? उसका निश्चितरूप से अभ्यास तब ही होता है, जब समस्त व्यवहार का त्याग किया जाए... देखो ! समस्त व्यवहार मुनिपने में जो पंच महाव्रतादि का विकल्प है, उस व्यवहार को भी छोड़कर अन्दर में ध्यान करे, तब चारित्र और रमणता होती है। ___ मुमुक्षु : यहाँ तो व्यापार-धन्धा लिया है। उत्तर : यह सब व्यवहार, इन्होंने भले लिया हो । यह वस्तु है, यहाँ तो सर्व व्यवहार की बात है। यहाँ तो सर्व व्यवहार, व्यवहार शब्द से राग... जितना अभेदस्वरूप में से भेद -राग होता है, उस सबको व्यवहार कहते हैं। चाहे तो अशुभ हो, चाहे शुभ हो अरे... ! गुण -गुणी के भेद का विकल्प भी व्यवहार है, यहाँ तो सर्व व्यवहार, ऐसा पाठ है। आचार्य के
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy