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सम्यग्दृष्टि सुगति पाता है सम्माइट्ठी जीवडहँ दुग्गइगमणु ण होइ। जइ जाइ वि तो दोसु णवि पुवक्किउ खवणेइ॥८८॥
सम्यग्दृष्टि जीव का, दुर्गति गमन न होय।
यद्यपि जाय तो दोष नहिं, पूर्व कर्म क्षय होय॥ अन्वयार्थ - (सम्माइट्ठी जीवडहँदुग्गइगमणुण होइ) सम्यग्दृष्टि जीव का गमन खोटी गतियों में नहीं होता है (जइ जाइ वि तो दोसुणवि) यदि कदाचित् खोटी गति में जाए तो भी हानि नहीं होती ( पुवक्किउखवणेइ) यह पूर्वकृत कर्म का क्षय करता है।
वीर संवत २४९२, आषाढ़ कृष्ण १२,
गाथा ८८ से ८९
शुक्रवार, दिनाङ्क १५-०७-१९६६ प्रवचन नं. ३५
यह योगसार शास्त्र है, योगीन्दुदेव मुनि। ८८ गाथा -
सम्माइट्ठी जीवडहँ दुग्गइगमणु ण होइ।
जइ जाइ वि तो दोसु णवि पुवक्किउ खवणेइ॥८८॥ (सम्यग्दृष्टि खोटी गति में) जाए तो दोष नहीं, पूर्व का खिरता है – ऐसा कहते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव का खोटी गतियों में गमन नहीं होता... क्योंकि अपना आत्मा शुद्ध अखण्ड निर्मल, निर्विकल्प, दृष्टि का आदर है। दृष्टि में अपने पूर्ण स्वभाव का आदर है; सम्पूर्ण संसार की अन्दर दृष्टि में उपेक्षा है। समझ में आया? सम्यग्दृष्टि 'दुग्गईगमणुण होइ' उसके दुर्गतिगमन नहीं होता, क्योंकि अपना स्वभाव ज्ञायक चैतन्यस्वभाव सन्मुख का उपादेयपना है और सम्पूर्ण संसार, विकल्प से लेकर सबकी उसे ग्रहण बुद्धि नहीं है... ग्रहण बुद्धि नहीं है और अपने शुद्ध स्वभाव की ग्रहण बुद्धि है। इस कारण से