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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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मुमुक्षुः ........
उत्तर : यह दूसरी बात है। अन्दर में राग नहीं रहता.. राग बाकी है, राग बाकी है। राग बाकी न हो तो वीतराग हो जाए, केवलज्ञान (हो जाए) । एक क्षण में अनुभव हुआ, क्षण में अनुभव हुआ तो वहाँ पर्याय में वीतराग हो गया? वीतराग हुआ हो तो फिर राग आया कहाँ से? फिर वापस राग आया... वह राग अन्दर है। अनुभव करने में बुद्धिपूर्वक का राग नहीं है... अबुद्धिपूर्वक का राग उसी समय है परन्तु दृष्टि के जोर में ऐसा भी कहा जाता है कि अनुभवी को निर्जरा ही है, बन्ध है ही नहीं। यह तो दृष्टि की प्रधानता की मुख्यता से (कहा गया है) परन्तु उसे अन्दर राग बाकी है, उतना बन्ध तो दशवें (गुणस्थान) तक है। समझ में आया? गौण में जो (राग) है, उसका ज्ञान तो उसे होना चाहिए। स्थिरता हो जाए, एकदम अनुभव में पूर्ण स्थिरता (हो जाए) सिद्ध जितना आनन्द प्रगट हो जाए तो समाप्त हो गया। सिद्ध जितना नहीं, सिद्ध जैसा अंश है; सिद्ध जितना नहीं। इसलिए यहाँ कहते हैं, अपने स्वरूप में रह सके, शुभभाव होवे परन्तु विचार तो अपने में रखना। अन्तर अनुभव कैसे हो? अन्तर में कैसे जाऊँ ? ऐसी भावना रखना ही मोक्ष का उपाय है।
(श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव!)
मुनिमार्ग की शाश्वत आचरण संहिता अहा! कोई भी साधु अथवा क्षुल्लक अपने लिए बनाया हुआ आहार ले तो वह जैनदर्शन के व्यवहार से अत्यन्त विरुद्ध है। बापू ! मार्ग यह है। यह कोई व्यक्तिगत बात नहीं है। यह तो वीतरागमार्ग है, इस मार्ग से विपरीत माननेवाले अधिक हों, इसलिए मार्ग दूसरा है - ऐसा नहीं है। अथवा पालन नहीं किया जा सके, इसलिए मार्ग दूसरा हो जाए - ऐसा भी नहीं है। जिसका व्यवहार सच्चा है, उसका निश्चय झूठा भी हो सकता है और सच्चा भी हो सकता है, परन्तु भाई ! जिसका व्यवहार ही झूठा है, उसका निश्चय तो झूठा ही है।
(- प्रवचन-रत्न चिन्तामणि, ३/१२१)