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गाथा-८७
परमाणु को स्पर्शता है, आत्मा धर्मास्तिकाय को स्पर्शता है – ऐसा पूरा एक स्पर्श द्वार लिया है परन्तु उसका अर्थ क्या? निश्चय है वह झूठा है ? यह तो व्यवहार से (कहा है) स्पर्श का अर्थ संयोग है तो स्पर्श कहा है। स्पर्श क्या? समझ में आया? कथन की पद्धति है। ___ मुमुक्षु : एक को मानना और एक को नहीं मानना।
उत्तर : निश्चय को सत्य मानना और व्यवहार को उपचार से कथन मानना। तीसरी गाथा में 'अमृतचन्द्राचार्यदेव' ने ऐसा कहा – एक पदार्थ अपने अनन्त धर्मों को, गुणों को चुम्बन करता है, आलिंगन करता है, स्पर्श करता है परन्तु एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के गुण-पर्यायों को कभी चुम्बन आलिंगन नहीं करता। समझ में आया? वहाँ ऐसा कहते हैं और (धवल में) ऐसा कहते हैं कि परमाणु, आत्मा को स्पर्श करता है; आत्मा, धर्मास्तिकाय का स्पर्श करता है। अरे! परन्तु आत्मा धर्मास्तिकाय को स्पर्श करता है - इसका अर्थ क्या? उस समय के संयोग को वहाँ स्पर्श कहा है, वरना स्पर्श है नहीं। वहाँ धवल में कथन की ऐसी पद्धति है, पूरा एक स्पर्श द्वार है। यह क्या है ? समझ में आया?
यहाँ कहते हैं भगवान आत्मा... व्यवहारनय का विचार चञ्चल शुभ उपयोग बन्ध का कारण है। यह संसारदशा त्याग करने योग्य है और मोक्षदशा ग्रहण करने योग्य है, यह भी राग-द्वेष का विकल्प है। मोक्ष अच्छा है, यह राग का अंश है; संसार खराब है, यह द्वेष का अंश है। सत्य का स्थापन, ऐसा है, यह भी जरा राग का विकल्प है और ऐसा नहीं, ऐसा जरा द्वेष का अंश है। समझ में आया? पण्डित जयचन्दजी ने कर्ता-कर्म अधिकार में लिखा है, ऐसा ही है न, अकेला ज्ञातास्वभाव में ऐसा है। सर्वज्ञ कहते हैं, वह तो इच्छा बिना वाणी निकलती है, उन्हें तो इच्छा नहीं है परन्तु यहाँ नीचे की भूमिका में (ऐसा कहे कि) ऐसा है, ऐसा नहीं है... अन्दर चारित्रमोह का अंश उत्पन्न होता है। उपादेय नहीं है, वह भी उपादेय नहीं है। समझ में आया? यहाँ तो कहते हैं...
क्षणिक है, दु:खदायी है, अनित्य है, अशान्त है। अनित्य है न? वह त्रिकाली नहीं... अनित्य तो अपनी शुद्धपर्याय भी अनित्य है परन्तु वह दुःखदायी नहीं है; यह दु:खदायक है, इस अपेक्षा से अन्तर है । क्षणिक तो केवलज्ञान भी क्षणिक है, एक समय की पर्याय केवलज्ञान दूसरे समय वह नहीं रहती; वह नहीं, वैसी ही (दूसरी) होती है