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गाथा-८६
कारण है। चारित्र ही साक्षात् सुख का कारण है । आत्मिकसुख का प्रेम बढ़ जाये और अभ्यास भी ऐसा हो जाए कि आत्मिक रस के स्वाद बिना दूसरे सब विषयरस के स्वाद फीके लगे... कहीं आसक्ति भी न हो। जिन अथवा जितेन्द्रिय होकर आत्मा का मनन कर सकता है। लो, समझ में आया? फिर बहुत लिया है।
आत्मानुशासन में कहा है : आत्मज्ञानी मुनि को बारम्बार सम्यग्ज्ञान को अन्तर में फैलाकर रखना योग्य है। देखो! मुहुः प्रसार्या सज्ज्ञानं। मुहुः मुहुः। अर्थात् बारम्बार।
मुहुः प्रसार्या सज्ज्ञानं पश्यन् भावान् यथास्थितान्।
प्रीत्यप्रीती निराकृत्य ध्यायेदध्यात्मविन्मुनिः॥ १७७॥ यह श्लोक है, समझ में आया? यह आत्मानुशासन का है। रामसेनाचार्य का है ? कैसा? आत्मानुशासन को गुणभद्राचार्यदेव का है। आत्मज्ञानी मुनि को योग्य है कि बारबार सम्यग्ज्ञान को भीतर फैलाकर रखे... देखो कहते हैं भगवान आत्मा ऐसा चैतन्यज्योति है न, उसकी अन्तरदृष्टि करके, अन्तर में ज्ञान के विकास का अर्थ स्थिरता, आनन्द, शान्ति अर्थात् चारित्र आदि का विकास हो, उस प्रकार से ज्ञान को फैलावे; राग को घटाये और ज्ञान को फैलाये। ज्ञान शब्द से आत्मा, उसकी समस्त शक्तियों का विस्तार करे और राग को घटाये। समझ में आया? मोक्ष का तो ऐसा मार्ग है। निरालम्ब मार्ग है। आहा...हा...! जिसमें व्यवहार का आलम्बन भी निश्चय में नहीं, ऐसा भगवान आत्मा अपने शुद्धस्वरूप में ज्ञान को फैलाओ... आत्मा का विकास करो। जैसे कली है. वह कली खिलती है तो विकास होता है। वैसे भगवान परम पारिणामिक स्वभाव से शक्तिरूप से पड़ा है, उसमें एकाग्र होकर पर्याय में विकास करो, कमल की तरह विकास करो - यह कहते हैं । समझ में आया? ज्ञान को अन्तर में फैलाकर रखना, ज्ञान की एकाग्रता में श्रद्धा भी हुई, चारित्र हुआ, आनन्द भी हुआ, स्थिरता-शान्ति भी हुई, स्वच्छता भी हुई। राग को घटाओ।
पदार्थों को जैसा है वैसा देखना... जैसा वस्तु का स्वरूप है, ऐसा देखने से राग-द्वेष न करके समताभाव से आत्मा का ध्यान करना। भगवान आत्मा परमानन्द
कली है, वह कली