________________
१८३
योगसार प्रवचन (भाग-२) है। ओहो...हो... ! जहाँ सुख है, वहाँ सुखबुद्धि होगी या जहाँ सुख नहीं है, वहाँ सुखबुद्धि होगी? अपना आनन्द तो अपने में है। अपना आनन्द क्या पुण्य-पाप के भाव में है ? शरीर में है, इन्द्रिय में है?
धर्मी को पहली नजर में अपना आनन्द अपने में है, पुण्य-पाप में आनन्द नहीं है - (ऐसी दृष्टि हो गयी है)। व्यवहाररत्नत्रय का शुभ उपयोगरूप राग होता है, उसमें आनन्द नहीं है और उसके फल में आनन्द नहीं है – ऐसी दृष्टि हुई होने पर भी, लालसा न छूटे... जरा आसक्ति अन्दर से न छूटे, वहाँ तक घर में स्त्री सहित रहकर भी यथाशक्ति आत्मा का मनन करना... समझ में आया? ऐसा नहीं है कि अपनी शक्ति तो है नहीं और सब छोड़कर बैठ जाये और अन्दर में दशा तो है नहीं, फिर हठ हो जाये, परीषह सहन करने की जो ताकत अन्दर होनी चाहिए वह तो हुई नहीं, फिर हठ हो जाये, भार...भार... भार...बोझा...बोझा... (लगे) कहते हैं. स्त्रीसहित रहकर...ऐसा...समझ में आया? आहा...हा...!
एक बार तो 'कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने' 'मूलाचार' में ऐसा भी कहा है कि हे जीव! तेरे स्वरूप की दृष्टि में सम्यग्दर्शन हुआ और तुझे सम्यग्दर्शन में दोष न लगे, इसके लिए जिसकी मिथ्याश्रद्धा है और मिथ्याश्रद्धा की बात करता है – ऐसे साधु का संग नहीं करना। पण्डितजी! ऐसा मूलाचार में श्लोक है। (उसका संग) नहीं करना, उसकी अपेक्षा तो विवाह कर लेना – ऐसा पाठ है। विवाह कर लेना, स्त्री। स्त्री करने का कहते हैं ? यह तो (ऐसा कहते हैं कि) स्त्री का दोष है, वह चारित्र का दोष है परन्तु यदि तू मिथ्याश्रद्धावन्त के संग में जाएगा और तेरी मिथ्याश्रद्धा हो गयी तो (सम्यग्दर्शन से) भ्रष्ट हो जाएगा - ऐसा मूलाचार में श्लोक है। मूल गाथा है, कितनी है वह ? सब कहाँ याद होता है ? भाव ख्याल में होता है... ऐसी कहीं बुद्धि नहीं है कि इस जगह यह गाथा है, इस जगह यह श्लोक है। भाव का ख्याल है, भाव। समझ में
आया? आहा...हा...! अरे... परन्तु सन्त ऐसा कहते हैं ? भाई! विवाह करने का कहते हैं? ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है। पाठ तो ऐसा है, लाओ न पाठ, देखो, पाठ ऐसा है, विवाह करना, विवाह करने का कहते हैं ?