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गाथा-८६
अनादि-अनन्त – ऐसी अन्तर में निश्चयदृष्टि स्वभाव के आश्रय से हुई, वह तो आत्मा में ही पड़ा है। समझ में आया? श्रावक भी अपने ज्ञान में रहता है, स्थिरता में रहता है। व्यवहाररत्नत्रय से भी मुक्त है। अद्भुत बात, भाई ! समझ में आया?
भगवान... इसलिए श्रावकपद में रहकर एकदेश आत्मज्ञान का साधन करना... समझ में आया? न हो सके - ऐसा नहीं है, भाई! चौथे गुणस्थान में भी जहाँ आत्मा मुक्तस्वरूप का भान होता है और निर्विकल्प प्रतीति होती है तो पञ्चम गुणस्थान में तो श्रावक को तो शान्ति दूसरी कषाय के अभाव से शान्ति... शान्ति... बढ़ गयी है। समझ में आया? ऐसी शान्ति जो स्वभाव के आश्रय से (उत्पन्न) हुई, उसे यहाँ देश रत्नत्रय, शुद्ध रत्नत्रय कहते हैं । आहा...हा...! समझ में आया?
निर्वाण का साक्षात् उपाय निर्ग्रन्थपद ही है। ओहो...हो...! अलौकिक बात ! अन्तर में तीन कषाय का अभाव, निर्ग्रन्थ भाव, द्रव्यलिङ्ग भी निर्ग्रन्थ, बाह्य में भी नग्नदशा; बाह्य
और अभ्यन्तर दोनों निर्ग्रन्थदशा... वह निर्ग्रन्थदशा ही साक्षात् मोक्ष का कारण है, उपाय है। कहो, समझ में आया? परन्तु कहते हैं कि यदि ऐसी चीज न हो सके (तो वहाँ तक एक देश आत्मध्यान का साधन करना)। समझ में आया?
जब तक इन्द्रियों के विषयों की लालसा न छूटे... सम्यग्दर्शन होने पर भी, इन्द्रियों के विषयों में सुखबुद्धि न होने पर भी... समझ में आया? भाषा नहीं, इसके भाव समझ लेना। यहाँ तो कहते हैं, अपने स्वभाव में आनन्द है - ऐसी सम्यग्दृष्टि को रुचि हुई होने पर भी इन्द्रिय के सुख में सुख नहीं - ऐसी मान्यता होने पर भी आसक्ति रहती है। आसक्ति, वह चारित्र का दोष है और इन्द्रियों में सुख है यह मिथ्यात्व का दोष है। आहा...हा... ! समझ में आया? अपने स्वरूप में अतीन्द्रिय आनन्द है, राग में और पर में तीन काल में सुख नहीं है – ऐसी अतीन्द्रिय आनन्द की सुखबुद्धि होना, उसका नाम सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है। सुखबुद्धि नहीं परन्तु आसक्ति, लालसा न छूटे – ऐसा इसमें लिया है न! जो शब्द हो उस प्रकार से (कहते हैं) लालसा, जरा आसक्ति, वृत्ति नहीं छूटती। पञ्चम गुणस्थान में सुखबुद्धि नहीं होने पर भी, सुखबुद्धि तो तीन काल में नहीं है। सम्यग्दृष्टि को तीन काल-तीन लोक में कोई सर्वार्थसिद्धि के देव में भी सुखबुद्धि नहीं