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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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समझ में आया? अनुभव करते हैं, देखा? निश्चय से निर्मल आत्मा का अनुभव करते हैं। विमलु, विमलु अप्पा मुणंति विमलुं निर्मल का ही अनुभव करते हैं। मुणंति का अर्थ अनुभव करते हैं, हाँ! अकेला जानना, जानना ऐसा नहीं। जानने का अर्थ ही अनुभव करना, उसे जानना कहा जाता है। भगवान आत्मा पूर्ण शुद्धस्वरूप, उसके सन्मुख होकर, पर से विमुख होकर अनुभव करते हैं, क्योंकि उसमें अनन्त गुण हैं। एक को अनुभव करने पर अनन्त गुण का अनुभव उसमें आ जाता है - ऐसा कहते हैं। एक भगवान आत्मा को अन्तर्दृष्टि में अनुभव करने से भगवान में रहनेवाले सभी गुण अनुभव में आ जाते हैं । आहा...हा...!
देखो, अभी यह बड़ा विवाद चलता है। अभी चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण नहीं होता... अरे...! भगवान ! चारित्र के गुण का अंश न आवे तो वह द्रव्य परिणमित कहाँ से हुआ? आनन्द का अंश न आवे तो उस अनन्त आनन्द को धरनेवाला द्रव्य वह दृष्टि में -प्रतीति में आया कहाँ से? आहा...हा...! सम्यग्दर्शन कोई ऐसी चीज है कि सर्व गुण के अंश को प्रगट करके परिणमता है। समझ में आया? 'सर्व गुणांश वह समकित' है न अपने यहाँ? बड़े अक्षरों में लिखा है 'सर्व गुणांश वह समकित'। सर्व गुण में जितने अनन्त गुण भगवान आत्मा में भगवान ने देखे, उनमें सम्यग्दर्शन में समस्त गुणों का एक अंश व्यक्तरूप से, प्रगटरूप से-प्रगटरूप से अनुभव में आता है। समझ में आया? आहा...हा...! शक्तिरूप से तो है परन्तु उसमें क्या? इसलिए कहा न, अनुभवता है। अनुभव तो पर्याय में है न? द्रव्य का अनुभव नहीं होता, द्रव्य-गुण का अनुभव नहीं होता; द्रव्य-गुण का ज्ञान होता है... अनुभव पर्याय में होता है, पर्याय का होता है। पर्याय में – अवस्था में द्रव्य क्या है – ऐसा लक्ष्य करके पर्याय को अनुभवते हैं। उसे आत्मा को अनुभवते हैं ऐसा कहने में आता है।
शुद्धात्मा का जहाँ श्रद्धान है, ज्ञान है व उसी का ध्यान है अर्थात् जहाँ शुद्धात्मा का अनुभव है, उपयोग पञ्चेन्द्रिय व मन के विषयों से हटकर एक निर्मल आत्मा ही की तरफ तन्मय है, वही यथार्थ मोक्षमार्ग है। जब आत्मा का ग्रहण हो गया, तब आत्मा के सर्व गुणों का ग्रहण हो गया। ठीक है ? क्योंकि द्रव्य