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गाथा-८५
तीर्थङ्कर हुए, मूसलधार (उपदेश) चलता था, धर्म धुरन्धर धोरी.... महाविदेहक्षेत्र में अनेक तीर्थङ्कर विचरण करते हैं तो क्या वहाँ सब समकिती हैं? वहाँ भी मिथ्यादृष्टि के ढेर पड़े हैं। यहाँ तो अभी सातवें नरक जानेवाले भी नहीं हैं। वहाँ तो अभी सातवें नरक जानेवाले हैं। जैसे केवल (ज्ञान) प्राप्त करके (मोक्ष) जानेवाले हैं. (उसी प्रकार) सातवीं नरक में जानेवाले भी हैं। भाई! यह तो उनकी स्वतन्त्रता बताते हैं। यहाँ सातवें नरक में जानेवाले नहीं हैं, वैसे ही चार ज्ञान या केवलज्ञान होवे – ऐसी शक्ति भी नहीं है।
जहाँ आत्मा है, वह उसके सर्व गुण हैं। यहाँ क्या कहते हैं ? भाई! जितने गुण हैं, वे तेरे आत्मा में ही हैं; कहीं बाहर ढूँढ़ने जाना पड़े ऐसा नहीं है। जितने-जितने प्रशंसा करने योग्य अच्छाई भलाई, पवित्रता जितना कुछ कहा जाता है, सब गुण भगवान तेरे आत्मा में हैं, भाई! वे नहीं संयोग में, नहीं कर्म में, नहीं दया-दान के विकल्प में, नहीं एक समय की पर्याय में, सब गुण आ जाते हैं । त्रिकाल, त्रिकाल...।।
केवली भगवान ऐसा कहते हैं। लो, योगीन्द्रदेव को ऐसा कहना पड़ा। भगवान परमात्मा, जिन्हें अनन्त चक्षु हैं न, भाई! वे तो परमात्मा केवलज्ञानी हैं, जिन्हें अनन्त चक्षु हैं। वे अनन्त चक्षु असंख्य प्रदेशों में खिल गये हैं। वे भगवान ऐसा कहते हैं - जहाँ-जहाँ आत्मा, वहाँ-वहाँ अनन्त पवित्र गुण; जहाँ-जहाँ अनन्त पवित्र गुण, वह आत्मा। कहो समझ में आया? योगीन्द्रदेव को भगवान को रखना पड़ा। ऐसे अनन्त गुण, भाई! तू ऐसा कहता है कि यह आत्मा है या नहीं? तो फिर जितने अच्छे... अच्छे... अच्छे... गुण कहे जाते हैं, जितनी स्वच्छता निर्मलता, पवित्रता की उग्रता जो कछ कही जाती है. वह सब तेरे आत्मा में बसे हैं। प्रभ! श्रद्धा-ज्ञान, शान्ति. आनन्द, स्वच्छता, परमेश्वरता, कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण, भावअभाव, अभावभाव, भावभाव, अभावअभाव – ऐसे अनन्त गुण । जहाँ आत्मा वहाँ अनन्त गुण व्यापकरूप से ठसाठस भरे हैं।
इस कारण योगी निश्चय से निर्मल आत्मा का अनुभव करते हैं। लो, इस कारण से भगवान आत्मा पूर्ण पवित्रता का पिण्ड प्रभु, उसी का अनुभव सन्त करते हैं।