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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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भगवान यहाँ कहते हैं, प्रभु ! वह शरीर की क्रिया तो जड़ की है, अन्दर दया दान का विकल्प उठता है, वह पुण्यास्रव है, पाप की, हिंसा झूठ की तो बात ही क्या करना ? और उसकी एक समय की प्रगट पर्याय है, उसका आश्रय करना वह भी चीज नहीं है; उसका आश्रय करना तो विकल्प है। उसका ज्ञान और पर्याय का ज्ञान करना वह भी ज्ञान नहीं है। एक समय में चैतन्यप्रभु, उसका ज्ञान करके बारम्बार उसमें लीन होना - आत्मा में लीन होना, उसे पवित्र निश्चयचारित्र कहा जाता है। देखो ! दो शब्द पड़े हैं। शुद्धोहम्.... शुद्धोहम् । शुद्ध क्या करे ? वह तो विकल्प आया ।
एकरूप (स्वरूप का) पहले ज्ञान में लक्ष्य करके फिर एकरूप में एकाकार दृष्टि करना, जिसमें भेद का लक्ष्य नहीं रहे और निर्विकल्प प्रतीति उत्पन्न हो, ऐसे द्रव्य का आश्रय करना, उसका नाम सम्यग्दर्शन, ज्ञान है और उसी आत्मा में... जैसा अखण्ड अभेद श्रद्धा-ज्ञान में लिया है, उसी आत्मा में स्थिरता, स्थिरता, जम जाना, लीन होना, चरना... चरना... चरना अर्थात् चारा चरना, आनन्द का चारा चरना, आनन्द का अनुभव करना, अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव करना, उसका नाम भगवान, चारित्र कहते हैं । दो शब्द प्रयोग किये हैं । पवित्र... समझ में आया ? और उसका अर्थ चारित्र अर्थात् निश्चय लेना । समझे ? पुण पुणु अप्पा भावियए, सो चारित्त पवित्तु वह निश्चयचारित्र चारित्र, वही पवित्र है और वही मोक्ष का कारण है । ऐसा है, भाई ! व्यवहारचारित्र, व्यवहारज्ञान और व्यवहार श्रद्धा, वह तो परावलम्बी विकल्प है, वह कहीं मोक्षमार्ग में नहीं है। मोक्षमार्ग दो नहीं हैं, मोक्षमार्ग का कथन दो है, मार्ग दो नहीं हैं। अभी बड़ी विपरीतता चलती है। नहीं, मार्ग दो है। भगवान ! मार्ग दो नहीं हैं, मार्ग एक ही है परन्तु कथनशैली में दो प्रकार निमित्त देखकर आए हैं परन्तु निमित्त है, वह मार्ग है ही नहीं । यह एक ही मार्ग है । यह 'योगसार' है । ८४ गाथा है। समझ में आया ?
सच्चा
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भगवान आत्मा वस्तु है या नहीं ? एकरूप अखण्ड अभेद चीज है या नहीं ? पर्याय में परिणमन है, उसका अभी लक्ष्य (नहीं है) । पर्याय है, हाँ । पर्याय उसका स्वभाव है, स्वभाव है, ऐसा नहीं है। वह पर्याय स्वभाव ही अभी लेंगे परन्तु उस पर्याय का आश्रय नहीं करना है । पर्याय का आश्रय करने से विकल्प उत्पन्न होते हैं क्योंकि पर्याय तो एक अंश
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