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गाथा-८४
है। महान आत्मा। उसके एक-एक गुण अनन्त पर्याय प्रगट करने लायक है। एक-एक गुण से भी अनन्त शक्तिवान है। अनन्त शक्तिवान है। ऐसे अनन्त गुण, उनका एकरूप महंतु महात्मा भगवान की अन्तर्मुख श्रद्धा करना। वह जैसा है, वैसा। भगवान सर्वज्ञ कहते हैं वैसा। अन्य सर्व लोग आत्मा कहते हैं कि आत्मा ऐसा आत्मा ऐसा. ऐसा नहीं। सर्वज्ञ ने कहा वैसा (आत्मा)। बाद की गाथा में आयेगा। ८५ (गाथा) 'जहाँ आत्मा वहाँ सकल गुण, अनन्त गुण, केवली बोले ऐम'। जहाँ आत्मा वहाँ सकल गुण केवली बोले ऐम। निर्मल अनुभव आपका प्रगट करो सो प्रेम । यह ८५ में आएगा। इसलिए यहाँ पहले यह लिया है।
सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथ वीतराग परमेश्वर ने जो एक-एक आत्मा देखा तो भगवान ने आत्मा कैसा देखा? असंख्य प्रदेशी, अनन्त गुण का पिण्ड और त्रिकाल एकरूप स्वभाव देखा। ऐसा जो आत्मा, उसमें पुण्य-पापभाव नहीं आते, शरीर-वाणी नहीं आते और उसकी पर्याय के भेद भी उसमें नहीं आते। उसमें यह गुण है और यह गुणी है ऐसा भेद भी नहीं आता। ऐसे महन्त आत्मा का अन्तर्मुख दर्शन करना, उसका नाम भगवान परमेश्वर, त्रिलोकनाथ, सम्यग्दर्शन है – ऐसा फरमाते हैं। उसका ज्ञान... शास्त्र का ज्ञान आदि नहीं... उस ज्ञानस्वरूपी भगवान का ज्ञान, ज्ञायकभगवान एक स्वरूपी प्रभ, एक स्वरूपी ज्ञायक का ज्ञान, उसका नाम ज्ञान है। शास्त्र का ज्ञान वह ज्ञान नहीं है, समझ में आया? वह बर्हिसत्तावलम्बी ज्ञान है। स्वसत्तावलम्ब होकर अपने शुद्धस्वरूप में एकाकार होना, जो ज्ञान स्वरूप त्रिकाल है, उसमें से ज्ञान की पर्याय का प्रगट होना, वह अपना ज्ञान है। उसे ज्ञान कहते हैं । आहा...हा...!
पुण पुणु अप्पा भावियए यह चारित्र की व्याख्या चलती है। चारित्र (अर्थात्) क्या? बारम्बार इस आत्मा की भावना करना, वह पवित्र अथवा निश्चय शुद्ध चारित्र है। भगवान आत्मा शुद्ध पूर्णानन्द अतीन्द्रिय आनन्द का कन्द एकरूप की दृष्टि हुई है, ज्ञान हुआ है, (अब) बारम्बार उसमें लीन होना, आत्मा में लीन होना, हाँ! विकल्प, शरीर की क्रिया उसमें है ही नहीं। ओ...हो...! देखो न, जीवित शरीर की क्रिया से धर्म होता है – ऐसा कहते हैं न? ऐसा प्रश्न उठा है जयपुर में (जयपुर-खानियां तत्त्वचर्चा में) आहा...हा...!