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गाथा - ८३
स्वयं ज्ञान चेतनामय है, परम निराकुल है। भगवान आत्मा स्वयं ज्ञानचेतनामय है। ज्ञान... ज्ञान... ज्ञान... ज्ञान... ज्ञान... अर्थात् ज्ञानस्वभाव । ज्ञानस्वभाव वह आत्मस्वभाव । चैतन्यमय, उसका वेदन वह चैतन्यमय वेदन है । अपना शुद्ध चेतनमय वेदन है । पुण्य -पाप रागादि का वेदन वह तो आकुलता का वेदन है। भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप का वेदन वह ज्ञानचेतना है । परम निराकुल है। वही परमात्मादेव है... वही परमात्मादेव है ऐसा दृढ़ श्रद्धान, वह निश्चयसम्यग्दर्शन है।
उसकी प्राप्ति का उपाय अन्तरङ्ग निमित्त अनन्तानुबन्धी कषाय और मिथ्यात्व का उपशम है.... बाहर का निमित्त बताते हैं । बाह्य उपाय देव-गुरु-शास्त्र का श्रद्धान और जीवादि सात तत्त्वों का पक्का श्रद्धान... वह निमित्त है। तथा स्व-पर का भेद - विज्ञानपूर्वक का विचार है, मन-वचन-काया की सर्व क्रिया निमित्त है। अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग निमित्त मिलने से निश्चय सम्यग्दर्शन आत्मा की ही भूमिका में से उत्पन्न होता है। वह निश्चय आत्मा का सम्यग्दर्शन आत्मा की भूमिका में आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होता है, वह राग की भूमिका में उत्पन्न नहीं होता । भगवान आत्मा स्वयं परमेश्वर अपनी भूमिका में निश्चयसम्यग्दर्शन अन्दर से प्रगट करता है। पर की सत्ता में क्या है ? अपनी सत्ता में (स्वयं) प्रगट करता है। समझ में आया ?
आत्मा ही उपादान कारण है। आत्मा का आत्मारूप यथार्थ ज्ञान निश्चय सम्यग्ज्ञान है। आगम द्वारा तत्त्वों का व द्रव्यों का मनन निमित्त है। आत्मा के अभ्यास से व गुरु के उपदेश के निमित्त से भीतर उपादान आत्मा से ज्ञान का प्रकाश होता है । अन्तरङ्ग विभिन्न ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व अन्तराय कर्म का क्षयोपशम है। निमित्त से बात (की) है। ठीक !
आत्मा के भीतर आत्मा द्वारा ही पर के अवलम्बन से रहित भ्रमण करना, वह निश्चयसम्यक्चारित्र है । लो, यह चारित्र ! आत्मा में आत्मा के भीतर आत्मा द्वारा... निर्विकल्प द्वारा, पर के अवलम्बनरहित... व्यवहार के अवलम्बन रहित स्वरूप में रमणता करना, वह निश्चयसम्यक् चारित्र है । वह दर्शन - ज्ञान - चारित्र उत्तम तीर्थ है। उसमें स्नान करने से मलिनता का नाश होता है । आहा... हा.... ! समझ में आया ? आत्मानुभव ही तीर्थ है... वह आत्मानुभव तीर्थ है । आहा... हा...!