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योगसार प्रवचन (भाग - २)
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लगभग तेरह सौ वर्ष पहले (हो गये हैं) । वे कहते हैं, देखो ! समझ में आया ? जैसे सिंह जङ्गल में दहाड़ मारता आवे, दहाड़ मारता आवे तो सारे हिरण फट... फट... फट... भगते हैं।
इसी प्रकार इसी प्रकार दहाड़ मारते हुए कहते हैं कि उत्तम तीर्थ प्रभु आत्मा है। बाहर के सब तीर्थ व्यवहार और पुण्यबन्ध के कारण हैं । यहाँ तो (अज्ञानी कहता है 'एक बार वन्दे जो कोई नरक पशुगति न होई', यह आता है न ? भाई ! यह 'सम्मेदशिखर' (के लिए कहते हैं), तो क्या है सम्मेदशिखर ? एक बार क्या, लाख करोड़ बार वहाँ जा न! वह तो शुभभाव है, पुण्यभाव है, बन्धभाव है । कहो, समझ में आया ? भगवान आत्मा... समझ में आया ?
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कर्म बन्ध से छुटने का उपाय अथवा भवसागर से पार होने का उपाय रत्नत्रय धर्म है। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है । वही तीर्थ है, उत्तम तीर्थ वह है । पवित्र तीर्थ है, पवित्र तीर्थ । निश्चयरत्नत्रय साक्षात् मोक्षमार्ग है... अपना शुद्ध स्वरूप, उसकी श्रद्धा - ज्ञान और रमणता निर्विकल्प आनन्दसहित (होना), वह निश्चय साक्षात् मोक्षमार्ग है। वही उपादानकारण है। स्वयं का कारण है । व्यवहाररत्नत्रय उपादान के प्रकाश के लिए बाह्य निमित्त है । व्यवहाररत्नत्रय बाह्य निमित्त है । बाह्य निमित्त है । बाह्य निमित्त है ऐसा कहा है। 'प्रकाश के लिए' हमने निकाल दिया। फिर बहुत लम्बी बात है । उपादान अपने शुद्धस्वभाव से प्रगट होता है - ऐसा बताना है । व्यवहाररत्नत्रय तो एक निमित्त मात्र है ।
मिट्टी स्वयं घटरूप हो जाती है, कुम्हार का चाक इत्यादि निमित्त है। कार्यरूप स्वयं उपादानकारण हो जाता है। समझ में आया ? आत्मा अपनी शुद्धि अथवा उन्नति में स्वयं ही उपादानकारण है । उपादान दो प्रकार का है अशुद्ध उपादान (और शुद्ध उपादान) । यह शुद्ध उपादान की बात चलती है। अशुद्ध उपादान का अर्थ यह कि आत्मा अपनी पर्याय में राग-द्वेष-विकार करता है, वह अशुद्ध उपादान है और विकार नहीं, आत्मा अकेला शुद्ध परमानन्द है, वह शुद्ध उपादान है। शुद्ध उपादान दो प्रकार हैं - ध्रुव उपादान, एक क्षणिक उपादान । ध्रुव उपादान शुद्ध त्रिकाल है और उसमें सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र प्रगट करना, वह क्षणिक शुद्ध उपादान है। वह (एक) समय का है। समझ में आया ?