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योगसार प्रवचन (भाग-२)
१२५ रोग मिटाने का उद्यम करना ही रोगी के लिए बाकी रहता है। जिसे रोग जाना उसका निवारण करने की भावना (बाकी) रही।
इसलिए प्रवीण रोगी बहुत भावपूर्वक प्रवीण वैद्य द्वारा बतलाई गयी.. देखो! दोनों लिए हैं - एक तो प्रवीण रोगी, उसे पता है कि यह रोग है। भानरहित मूढ़ होवे उसे पता भी नहीं होता कि यह रोग है या नहीं? प्रवीण रोगी और बहुत भावपूर्वक प्रवीण वैद्य द्वारा... ज्ञानी द्वारा बतलाई गयी औषधि... जो यह तेरी चीज में रागादि-पुण्यादि होते हैं, वह तुझे रोग है। समझ में आया? औषधि का सेवन करके धीरे-धीरे निरोगी हो जाता है।
उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव चारित्रमोहनीय के विकारों को दूर करने के लिए... चारित्रमोह के निमित्त से राग का रोग होता है। राग का रोग, शुभराग का रोग, अशुभराग का रोग। आहा...हा...! धर्मी की दृष्टि कहाँ है और कहाँ से उठ गयी है ! (वह बताते हैं)। विकार से दृष्टि उठ गयी है। मेरे चैतन्य में विकार है ही नहीं। विकार को रोग जानकर उसे छोड़ने का, मिटाने का उपाय करता है या रखने का (करता है)? यह (अज्ञानी) तो कहता है शुभराग रखो, शुभराग से धर्म होगा। यहाँ तो कहते हैं, शुभराग आता है (तो उसे) रोग के समान जानकर धर्मी उसे छोड़ने का उपाय करता है। कहो, यह तो सादी बात है। समझ में आता है या नहीं? भाई ! सरल बात है।
शरीर में रोग होवे तो रोग रखने की इच्छा है ? दवा की बोतलें भर के रखो, दवा भर के रखो, भाई ! बहुत दवा रखो, अपने को रोग रखना है और रोग ऊपर की दवा भी रखो। अरे...! चल... चल...! भाईसाहब! रोग आज ही मिट जाए तो दवा-फवा कौन करे? वह तो रोग जानता है।
इसी प्रकार धर्मी, धर्म उसे कहते हैं कि अपनी आत्मा में धर्मी ने अतीन्द्रिय आनन्द माना है और राग-पुण्य, दया-दान-व्रत का भाव आता है, उसे धर्मी रोग जानता है। आहा...हा...! अरे...! भगवान... और राग को मिटाने का उपाय करता है तथा मिटाने का उपाय भी (यह है कि) अपने स्वरूप में एकाग्रता करना, वह मिटाने का उपाय है। समझ में आया? दूसरा कोई उपाय नहीं है।