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गाथा-८२
शरीररहित हूँ। ऐसी अपनी स्वरूप की रुचि – दृष्टि होवे, उसका नाम 'आरोग्य वोहि लाभं' है। निरोगता-बोधि का लाभ होना, उसका नाम आरोग्यता का लाभ है और राग मेरा, शरीर मेरा है, उससे मुझे लाभ होता है (-ऐसा जो मानता है उसे) बड़ी भ्रान्ति का, सन्निपात का रोग लागू पड़ा है।
मुमुक्षु : त्याग का माहात्म्य है?
उत्तर : त्याग का तो माहात्म्य कहते हैं। यह क्या कहते हैं? यह बात तो करते हैं। क्या कहा? अन्दर में रोग होवे तो अज्ञानी रोग को जानता है या नहीं? रोग को छोड़ने का उपाय करता है या नहीं? ऐसे अन्दर में रोग है, वह मेरा है और मैं उसका हूँ। इस प्रकार अन्दर में रोग है वह मेरा है और मैं उसका हूँ – ऐसे रोग को छोड़ने का उपाय करे या उसे रखने का उपाय करे? छोड़ने का। राग को छोड़ने का इलाज करे, रखने का इलाज नहीं करे, समझ में आया?
उसके प्रति पूर्ण वैरागी हो जाता है... लो! आहा...हा...! शरीर में रोग के ढेर हों तो प्रसन्न होता है? शरीर में सोलह रोग, लो! सोलह रोग। समझ में आया? नारकी को सोलह रोग एक साथ (होते हैं)। सम्यग्दर्शन है तो जानता है कि मुझे रोग ही नहीं हैं, इस शरीर में है मुझमें नहीं। अज्ञानी जानता है कि रोग मुझे हुआ, मुझमें हुआ। अज्ञानी होवे तो भी रोग रखने का उपाय करता है ? समझ में आया? ऐसे ही धर्मी में पुण्य-पाप का भाव होता है, वह रोग है, फुसी है, फुसी। आहा...हा...! समझ में आया? उसे (पुण्य को) तो ऐसा गले पकड़ा है, पुण्य का भाव, हाँ! गले पकड़ा है। पुण्य कहाँ था तेरे? सुन न! ओहो...हो...! पवित्रता, भगवान आत्मा अकेला पवित्रता का पिण्ड प्रभु, उसकी दृष्टि का (जिसे) अभाव है, उसे पुण्य-पाप का आदर करने का भाव है, ज्ञानी को नहीं। समझ में आया?
रागादिभाव और शरीरादि रोगों को रोग और आत्मा के लिए हानिकारक जानकर उनके प्रति पूर्ण वैरागी हो जाता है। उनकी साज सम्हाल करूँ तो मुझे ठीक (होगा), ऐसा नहीं मानता। विकल्प आता है परन्तु वह विकल्प भी निरर्थक है। मेरे शरीर की व्यवस्था उस विकल्प से होती है - ऐसा नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया? अब