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योगसार प्रवचन (भाग-२)
योगीन्दुदेव महान नग्न-दिगम्बर मुनि वनवासी साधु कहते हैं कि पञ्चम काल में भी चारित्र तो दर्शन-ज्ञान उसे कहते हैं, अपने शुद्ध भगवान आत्मा की प्रतीति अनुभव और स्थिरता होवे, उसे दर्शन-ज्ञान - चारित्र कहते हैं । व्यवहार तो जाननेयोग्य है, वस्तु नहीं । यहाँ क्या कहते हैं ? ‘अप्पा दंसणु णाणु मुणि, अप्पा चरणु बियाणि ।' आत्मा, आत्मा और आत्मा पुकार करते हैं। पता नहीं है उन्हें कि पञ्चम काल में ऐसे जीव पकेंगे ? मार्ग तो यह है। समझ में आया ? परमात्मप्रकाश में कैसा लिखा है ! आगे कहेंगे! मैं अपने..... पहले कहा है कि भव्यजीवों को सम्बोधन के लिये कहता हूँ, फिर (कहेंगे) मेरी भावना के लिये मैंने बनाया है। मैंने अपनी भावना के लिये बनाया है, अन्त में कहेंगे। ठीक! स्वयं कहते हैं मुझे तो यह घोलन चलता है, वह मैंने बनाया है। समझ में आया ?
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व्यवहार से बारह प्रकार का तप... पालन करना । वह शुभविकल्प है, बाह्य व्यवहारतप । निश्चय से आत्मा के शुद्धस्वरूप में तपना... कहो, कुछ समझ में आया ? एक आत्मा... आत्मा... परन्तु आत्मा के अतिरिक्त दूसरा क्या होगा ? अनात्मा में धर्म होत है ? पुण्य-पाप के परिणाम तो अनात्मा हैं; देह की क्रिया, वाणी की क्रिया तो जड़ है, अजीव है, क्या उसमें धर्म होता है ? भगवान आत्मा... समझ में आया ? ध्रुव... ध्रुव ... ध्रुव ... ध्रुव... ध्रुव ... 'निरखे ध्रुव का तारा।' भगवान शाश्वत् शुद्ध चैतन्य ध्रुव में लीन होना, वही आत्मा का तप कहलाता है । वह तप है, बाकी सब व्यवहार तप कहलाता है अथवा लंघन कहलाता है ।
आत्मिक भाव में प्रकाश पाने के लिये यह तप सहायक है । यह इच्छा, शुद्धस्वरूप में रमना, हाँ! तपस्वी को योगी को उचित है कि इन्द्रिय दमन व मन -वचन-काय की शुद्धि के लिये उपवास करता रहे। यह तो व्यवहार की बात है । मात्रा से कम भोजन लेना, जिससे ध्यान स्वाध्याय में प्रमाद न हो । (फिर) बारह प्रकार के तप की व्याख्या की है। समझ में आया ? व्यवहार की ( बात की है) । यह भी अर्थ किया है। बारह प्रकार के तप की व्याख्या की है।
अन्तरङ्ग में विभावों से, बाहर में शरीरादि परवस्तुओं से विशेष ममता त्याग, वह ब्रह्मचर्य तप है । अन्तरङ्ग विकार, विभाव के विकल्प से, बाहर में शरीरादि