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गाथा-८१
व्यवहार में आगमज्ञान वह सम्यग्ज्ञान है।.. व्यवहार से शास्त्र का ज्ञान। निश्चय से ज्ञान में अपनी आत्मा का शुद्ध स्वभाव का झलकना, वही सम्यग्ज्ञान है। निश्चय – यथार्थ में अपने ज्ञान में अपने आत्मा का शुद्धस्वभाव झलकना, (वह सम्यग्ज्ञान है)। शुद्धस्वभाव का भान अन्दर ज्ञान में होना, उसका नाम सम्यग्ज्ञान है।
व्यवहार में साधु या श्रावक के महाव्रत अथवा अणुव्रतरूप आचरण, वह व्यवहारचारित्र है। व्यवहारचारित्र, हाँ! निश्चय से वीतराग भाव ही सम्यक्चारित्र है। निश्चय अपने शुद्धस्वरूप में रमणता करना – ऐसे निर्विकल्प आनन्द का अनुभव होना, वह चारित्र सच्चा है। साथ में पञ्च महाव्रत के विकल्पादि हों, वह व्यवहारचारित्र, उपचारचारित्र है। व्यवहार में पाँच इन्द्रिय और मन का निरोध, वह इन्द्रिय संयम और पृथ्वीकायादि छह प्रकार से प्राणियों की रक्षा व प्राणी संयम है। वह व्यवहार है, विकल्प है। निश्चय से अपने ही शुद्धस्वभाव में अपने को संयमरूप रखना, बाहर कहीं भी राग-द्वेष न करना, वह आत्मा का धर्म, संयम है। यहाँ तो आत्मा, आत्मा बात की है न!
व्यवहार से मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदित इन नौ प्रकार से काम विकार को मिटाकर शील पालना, वह ब्रह्मचर्य है। वह भी व्यवहार ब्रह्मचर्य, विकल्प है न! मन से, वाणी से, काया से ब्रह्मचर्य पाले, वह विकल्प, शुभराग है। निश्चय से ब्रह्मस्वरूप आत्मा में ही चलना वह निश्चय ब्रह्मचर्य है। निश्चय ब्रह्मचर्य तो अपना ब्रह्मानन्द भगवान... ब्रह्म अर्थात् आनन्द, उसमें चरना, लीन होना, उसका नाम ब्रह्मचर्य है। अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप में लीन होना, वह ब्रह्मचर्य है। सभी अर्थों में अन्तर... व्यवहार और निश्चय के सभी अर्थों में बहुत अन्तर पड़ गया है। लोग तो (ऐसा कहते हैं) व्यवहार वही साधन है, वही साधन है। मक्खनलालजी! वह साधन – श्रावक, मुनि के व्रतादिक साधन हैं, उनसे मुक्ति का मार्ग है, उसे तो सोनगढ़ कहता है कि पुण्यबन्ध का कारण है। सोनगढ़ कहता है या भगवान कहते हैं। भगवान कहते हैं, परमेश्वर त्रिलोकनाथ वीतरागदेव। वे क्या कहते हैं? देखो न यह! योगीन्द्रदेव मनि (कहते हैं) कितने वर्ष हुए? हजार-बारह सौ वर्ष पहले (हुए हैं) समझ में आया?