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गाथा - ८०
का विकल्प है । अन्तरस्वरूप एकाकार की दृष्टि करके अनुभव करना, वह निश्चयधर्म है। समझ में आया ?
वह ज्ञेय की अपेक्षा से सर्वज्ञ, सर्वदर्शी कहलाता है । देखो, ज्ञेय की अपेक्षा से कहलाता है, बाकी अपने ज्ञान की अपेक्षा से तो आत्मज्ञ और आत्मदर्शी है। शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक होकर निरन्तर आत्मप्रतीति वर्तता है। लो ! शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक, त्रिकाल, हाँ! उसकी दृष्टि करके निरन्तर आत्मप्रतीति में वर्तता है। भगवान आत्मा निश्चय में, अन्तर स्वभाव में तो निरन्तर प्रतीति में वर्तमान ही आत्मा है, त्रिकाल । ऐसी दृष्टि की, तब त्रिकाल प्रतीति में वर्तमान है - ऐसा भान हुआ । श्रद्धा में लिया कि यह आत्मा पूर्णानन्द है तो जब प्रतीति में पूर्ण आत्मा आया तो वह आत्मा त्रिकाल प्रतीतमान ही वर्तमान है, त्रिकाल अपनी प्रतीति करने सहित ही आत्मा है - ऐसा प्रतीति में आया । समझ में आया ?
सर्व कषायभावों के अभाव से परम वीतराग यथाख्यातचारित्र से विभूषित । भगवान आत्मा सर्व पुण्य-पाप के विकल्प, कषाय से रहित वीतरागचारित्र है । जब अपनी पर्याय में भी वीतरागता प्रगट की तो आत्मा त्रिकाल वीतरागचारित्र सम्पन्न था - ऐसा अनुभव में आया। समझ में आया ? आपके आनन्द को आपको देता है, अनन्त दान करनेवाला है। पर को दान कौन दे ? वह तो जड़ की क्रिया है, वह तो होनेवाली होवे तो होती है। दान का विकल्प, शुभभाव आता है, वह पुण्य है। आपके आनन्द को आपको देता है... मैं आनन्दमूर्ति हूँ, अतीन्द्रिय आनन्द हूँ - ऐसा अन्तर में एकाकार होकर अपनी पर्याय में-अवस्था में आनन्द का दान देना, वह अपने में दान दिया - ऐसा कहा जाता है । ओ...हो... ! समझ में आया ? आपके आनन्द को आपको देता है... आपके आनन्द को आपको देता है... आहा... हा.... ! ठीक लिखा है । आहार- पानी देना वह तो जड़ की क्रिया है, वह कहाँ आत्मा कर सकता है ? उसमें शुभभाव होवे, वह पुण्य है। मुमुक्षु : देना या नहीं देना ?
उत्तर : कौन दे ? देने में जो भाव आता है, वह शुभभाव है, शुभभाव है। मुमुक्षु : पैसा होवे तो भी दूसरे को भूखा रखना ?