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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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आकिञ्चन्य धर्म कहा जाता है। आत्मा अपरिग्रहवान है, त्रिकाल अपरिग्रहवान है। उस अपरिग्रहवान का ध्यान करना, अपरिग्रह की परिणति प्रगट करना, उसका नाम आकिञ्चन्य धर्म कहा जाता है। परम असंग है। यह आकिञ्चन्य की व्याख्या की।
यह आत्मा उत्तम ब्रह्मचर्यगुण का धारक है। निरन्तर ब्रह्मभाव में मग्न रहता है। यह तो उत्तम ब्रह्मस्वरूप तो अनादि अनन्त है, उसमें लीन होना, वह उत्तम ब्रह्मचर्य है। कहो, समझ में आया? काया से ब्रह्मचर्य (पालन करे, वह) तो व्यवहार है। आत्मा ब्रह्मानन्द भगवान पूर्णानन्दस्वरूप, ब्रह्मानन्दस्वरूप आत्मा ही है। उसमें एकाकार (होकर) आनन्द में रहने का नाम ब्रह्मचर्य कहा जाता है। इस प्रकार दश लक्षण धर्म का विचार करना अथवा अपने आत्मा को दश गुणसहित विचार करना। दूसरे दश लक्षण कहे हैं। क्या?
यह आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख - इन दस विशेष गुणों का धारक परमात्मस्वरूप है, यह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होने पर भी आत्मज्ञ और आत्मदर्शी है। यह पहला गुण – अनन्त ज्ञान की व्याख्या की, भाई! आत्मा अनन्त ज्ञानस्वरूप है – ऐसा भेद से विचार करना, हाँ! यह तो सब भेद से विचारते हैं; वस्तु तो अखण्ड है। अभेद में तो अकेला ज्ञायक चैतन्यस्वरूप पर दृष्टि करके ध्यान में लीन हो जाना, वही अभेददृष्टि, वही ध्यान और वही मोक्ष का मार्ग है।
ऐसा विचारना कि सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होने पर भी... आत्मा सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, तथापि आत्मज्ञ और आत्मदर्शी है। सर्व को जानने-देखनेवाला है, तथापि आत्मज्ञ
और आत्मदर्शी है। समझ में आया? कहते हैं न? सर्वज्ञ को व्यवहार हुआ न? व्यवहार हुआ न? ऐसा कहते हैं । व्यवहार तो पर की अपेक्षा से (कहते हैं) परन्तु सर्वज्ञपना और सर्वदर्शीपना अपना स्वभाव ही आत्मज्ञ और आत्मदर्शी, सर्वज्ञ और सर्वदर्शीपना है। समझ में आया? ज्ञ – वही आत्मज्ञ है, आत्मज्ञ वही सर्वज्ञ है। ऐसा नहीं है कि सर्वज्ञ अर्थात् पर को जानना व्यवहार है, (इसलिए) व्यवहार झूठा है – ऐसा नहीं। आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी स्वभावधारी भगवान आत्मा है – ऐसा अन्तर में मनन करना, वह भी भेद है, पुण्य