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________________ गाथा - १४ वीतराग कहते हैं - ऐसा तो आचार्य स्वयं पुकारते हैं। तह जि तथा हे आत्मा ! तेरे परिणाम से मोक्ष ऐसा वियाणि ऐसा कहते हैं । तेरे परिणाम से तुझे मोक्ष है । परिणाम अर्थात् ? मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र का नाश और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के परिणाम - इन परिणामों से तेरा मोक्ष है । ओ...हो...हो...! बहुत लिखा है इसमें तो! समझ में आया ? तेरे जैसे भगवान प्रभु (की) स्वसन्मुखता को छोड़कर परसन्मुखता और अपनी विमुखता - ऐसे जो मिथ्यात्व अव्रत, कषाय आदि के शुभाशुभ परिणाम वे ही बंध का ( कारण हैं) । परिणाम बंध का कारण हैं - ऐसा । भगवान तीर्थंकरों ने सौ इन्द्रों की उपस्थिति, गणधरों की हाजिरी में भगवान ऐसा कहते थे । कहो, समझ में आया ? ९२ उसी प्रकार परिणामों से ही मोक्ष जान । भाषा देखो! तह जि मोक्ख वि वियाणि यह तो उसमें आ जाता है। समझ में आया ? उसी प्रकार.... 'ही' है न ? 'जि' उसी प्रकार परिणामों से ही मोक्ष जान । अद्भुत भाषा, भगवान आत्मा... यहाँ तो भगवान आत्मा अपने शुद्धस्वभाव की सन्मुखता के सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र ऐसे निश्चय रत्नत्रय के परिणाम, वही मोक्ष का कारण है - ऐसा तू जान, ऐसा भगवान कहते हैं । कहो, समझ में आया इसमें? ऐ... ई ... ! आहा... हा...! सन्मुख, सन्मुख और विमुख... एक बात है। एक बात है। भगवान आत्मा अपनी शुद्ध सम्पत्ति को छोड़कर, उसके माहात्म्य को छोड़कर और परवस्तु की अपने से अधिकपने कीमत करने जाता है, यह ठीक है और यह ठीक नहीं - ऐसे मिथ्यात्व के परिणाम और उसके साथ यह अनुकूल और प्रतिकूल - ऐसे जो इष्ट-अनिष्ट परिणाम, शुभाशुभ, बस ! वह एक ही बन्ध का कारण है । बन्धन अर्थात् चार गति में भटकने का यह एक परिणाम कारण है। नये कर्म बँधते हैं, वह तेरे परिणाम से बँधते हैं; उस क्रिया से नहीं । परजीव मरे या परजीव बचे अथवा लक्ष्मी अधिक रहे या लक्ष्मी थोड़ी रहे या लक्ष्मी दान में देने की क्रिया हो या लक्ष्मी रखने की कंजूसी की क्रिया हो तो वह लक्ष्मी और जीना मरना, वह बंध का कारण नहीं है। मोहनभाई ! तेरे उसकी ओर की रुचिपूर्वक के आसक्ति के परिणाम होते हैं, वह एक ही बंध का कारण है । यह एक कारण सिद्ध करना है,
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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