SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) ९१ शुभ और अशुभ, 'परिणाम' शब्द से यहाँ (ऐसा अर्थ है कि) मिथ्यात्वभाव और शुभ -अशुभ परिणाम इन तेरे परिणामों से बंध है। कर्म के उदय से बंध है - ऐसा नहीं है । मुमुक्षु - गोम्मटसार का क्या करेंगे ? उत्तर गोम्मटसार का यह करना । कहो, समझ में आया ? तेरा भाव.... इस स्वरूप की सन्मुखता को छोड़कर, शुद्धस्वभाव की सन्मुखता को छोड़कर, परसन्मुखता के परिणाम वे तेरे परिणाम बंध का कारण एक ही है। क्या कहा इसमें, समझ में आया ? दो बात (१) आत्मा शुद्धस्वरूप है, उसकी सन्मुखता के परिणाम, वह मोक्ष का कारण..... उसकी सन्मुखता से तेरे विमुख परिणाम, कर्म के कारण वह जीव मरे (ऐसा नहीं) यहाँ तो परिणाम से बंध कहा उसमें कहाँ आया ? वत्थं पडुच्च इनकार किया है। वस्तु से नहीं । वस्तु अर्थात् क्या ? मरना- जीना तो नहीं, ऐसा उसमें आया या नहीं ? भाई ! सामने जीव मरे, पैसा हो फिर भी, इस शरीर का निमित्त होकर कोई छह काय जीव मरे, उसके साथ बंध का कारण है ही नहीं। समझ में आया ? भले उस परिणाम में वह चीज निमित्त हो परन्तु वह बंध का कारण नहीं है । बन्धन का कारण तो तेरे स्व स्वभाव से विमुखपने में और परसन्मुखता से सन्मुखपने के परिणाम, पुण्य-पाप के, मिथ्यात्व के वह एक ही परिणाम बंध का है । आहा... हा... ! कहो, समझ में आया ? — - मुमुक्षु – दूसरी जगह दूसरा लिखा है। - उत्तर - दूसरा लिखा ही नहीं । अन्यत्र ऐसा कहें ? एक जगह - ऐसा कहे और एक जगह ऐसा कहे, मूर्ख है ? मूर्ख हो, वह ऐसा उल्टा अर्थ करता है। समझ में आया ? परिणामें बंधुजि कहिउ 'कहिउ' (कहा है) । देखो ! परिणाम से कर्म का बंध है, भाई ! प्रभु आत्मा शुद्ध अखण्डानन्द से विमुख परसन्मुखता के परिणाम, वह एक ही परिणाम बंध का कारण है। समझ में आया ? तह जि मोक्ख वि वियाणि उसी प्रकार परिणामों से ही मोक्ष जान । ऐसा, देखो ! है न ? उसके साथ सम्बन्ध है न ? तथा मोक्ष वि वियाणि अर्थात् ? जैसे अपने अशुद्ध परिणाम... अशुद्ध मिथ्यात्व के पुण्य, शुभाशुभभाव के, अव्रत के, प्रमाद के, कषाय के ऐसे जो तेरे परिणाम परसन्मुख के भाव हैं, वही परसन्मुख को उत्पन्न करानेवाले बंध को उत्पन्न करानेवाले वे भाव हैं। समझ में आया ?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy