SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) उत्कृष्ट पद को प्राप्त (हुए) ऐसे अनन्त सिद्धों को मैं वन्दन करता हूँ अर्थात् आदर करता हूँ । अर्थात् ? आदर करता हूँ अर्थात् कि उनके अतिरिक्त राग और अल्पज्ञ और निमित्त का आदर मैं दृष्टि में से छोड़ देता हूँ । समझ में आया ? हमारा आँगन उज्ज्वल किया है प्रभु! आहा... हा...! अनन्त सिद्धों को स्वयं यहाँ बुलाते हैं। प्रभु पधारों न यहाँ ! वे तो उतरते नहीं। अपनी ज्ञान कला की प्रगट दशा में अनन्त सिद्धों को यहाँ अन्दर समाहित करते हैं, विकास करते हैं कि ओ प्रभु ! निर्विकल्प पर्याय प्रभु प्राप्त होओ, प्रभु आओ। समझ में आया ? जिसकी ऐसी दृष्टि हुई है, वह अनन्त सिद्धों को अपनी पर्याय के आँगन में पधराता है। यह उसने भगवान को नमस्कार किया, कहा जाता है। ऐसे सब ' णमो सिद्धाणं, णमो अरिहन्ताणं' पहाड़ा बोले जाये, उसमें कुछ हो - ऐसा नहीं है। समझ में आया ? बाबूभाई ? कितना बोल गये ऐसे के ऐसे ? 'मो सिद्धाणं, णमो अरिहन्ताणं', 'णमो सिद्धाणं णमो अरिहन्ताणं' परन्तु नमो क्या ? नमते हो वह चीज कैसी है? मैं नमस्कार करनेवाला उसे आदर किस भाव से देते हो ? तेरे भाव में क्या शुद्धता आयी है ? - उसकी कुछ खबर बिना ' णमो अरिहन्ताणं' ऐसे पहाड़े तो अनन्त बार बोले हैं, उसमें कुछ नहीं हुआ । गडिया कहते हैं न ? गडिया क्या कहलाता है ? पहाड़ा । तुम्हारे कहते हैं न? एक एकडे एक, बिगड़े दो बोलते हैं न? क्या कहते हैं तुम्हारे ? पहाड़ा। समझ में आया ? इस एक गाथा में... आहा... हा... ! समझ में आया ? अपनी पर्याय में सिद्ध को याद करते हैं न ? सब भूलकर, हाँ! अकेले सिद्ध ही मानो नजर में तैरते हों, और नमस्कार करने योग्य, नमने योग्य तो मानो, अनन्त सिद्धों का समूह, ऐसी पर्याय को ही मानो नमने योग्य इस जगत में वस्तु हो, कोई राग और निमित्त और अल्प पर्याय में नमने योग्य जगत में नहीं हो - ऐसी जिसकी अन्तर में दृष्टि हुई है, वह उन अनन्त सिद्धों को अपने ज्ञान में पधराता है । आहा...हा... ! समझ में आया ? चिमनभाई ! यह बातें ऐसी हैं। आहा... हा... ! कहीं भी ध्यान में प्रभु! आपने तो निर्मल ध्यान किया था न ? उसका भरोसा ? उसका भान ? और उस निर्मल ध्यान द्वारा उस पूर्णानन्द की शक्ति की व्यक्तता... शक्ति में तो था, हाँ ! परन्तु प्रगटता हुई - ऐसी दशा को प्राप्त ऐसे परमात्मा को ही मैं नमस्कार करता हूँ । प्रभु ! उनका
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy