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गाथा-१
लिया। श्रोताओं को कहते हैं, इन सिद्ध को नमस्कार करते ही कहते हैं कि भाई! सिद्ध समान की पर्याय प्रगट हुई, उन्हें नमस्कार कौन कर सकता है ? समझ में आया? वह जिसके हृदय में, ज्ञान की दशा में सिद्धपद को स्थापित कर सके और विकारादि मुझ में नहीं है, मैं पूर्णानन्द सिद्ध समान शक्ति हूँ - ऐसे श्रद्धा-ज्ञान में सिद्ध को स्थापित करे, वह सिद्ध को वास्तविक नमस्कार कर सकता है। समझ में आया?
नमस्कार अर्थात् ? नमना है, उनकी दशा कैसी होती है? - उसकी प्रतीति न हो तो नमेगा किसे? समझ में आया? इसलिए वहाँ तो ऐसा कहा है न? यहाँ भी वही शैली है। 'कुन्दकुन्दाचार्यदेव' कहते हैं वदित्तु सव्वसिद्धे मैं सर्व सिद्धों को नमस्कार करता हूँ। अर्थात् ? अभी तक जितने सिद्ध भगवान हुए, उन सबको मेरी ज्ञानदशा में, मेरी वर्तमान ज्ञानकला में स्थापित करता हूँ, वन्दन करता हूँ अर्थात् आदर करता हूँ। अभी तक अनन्त सिद्ध हए, अनादि से होते आ रहे हैं, छह महीने आठ समय में छह सौ आठ मक्त पद को प्राप्त करते हैं - ऐसा केवलज्ञानी भगवान ने देखा है। छह महीना और आठ समय में छह सौ आठ (जीव) मुक्ति प्राप्त करते हैं - ऐसे आत्माएँ अनन्त काल से सिद्ध समूह इकट्ठे हुए हैं। सिद्ध समूह यह आता है न? सिद्ध समूहम् – ऐसा कहीं आता है, पूजा में आता है। समझ में आया?
उन बड़े सिद्धों का बड़ा नगर वहाँ भरा हुआ है, वहाँ सिद्धों की बस्ती है। आहा...हा...! ऊपर जहाँ सिद्ध परमात्मा विराजमान हैं, वहाँ सब सिद्ध की बस्ती विराजती है, अनन्त सिद्ध, अनन्त सिद्ध विराजते हैं परन्तु सबकी सत्ता भिन्न है। ऐसे अनन्त सिद्ध उनकी नगरी में विराजमान हैं। कहते हैं, ऐसे (सिद्ध भगवान को) यहाँ मैं, मेरे वर्तमान ज्ञान में, ऊर्ध्व में रहे होने पर भी, उन्हें यहाँ नीचे उतारता हूँ। प्रभु! पधारो, पधारो मेरे आँगन में। आहा...हा...!
कहते हैं अरे...! सिद्ध को आदर देनेवाले का आँगन कितना उज्ज्वल होगा! शशीभाई! एक राजा आये तो भी आँगन साफ करते हैं। हैं ? वस्त्र बिछायें, ऐसा करें, धूल करे, यह रेत-बेत समान करे, बारीक करे, बारीक शोध डाले, कंकड़ न रहे (इसलिए) अनन्त सिद्ध परमात्मा अशरीरी एक रूप ‘णमो सिद्धाणं' ऐसे अनन्त निर्मल पर्याय को,