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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) लिया।पर्याय में - अवस्था में... जो स्वरूप अन्तर में (पूर्ण था, उसे) पर्याय में प्रगट पूर्ण प्राप्त किया अर्थात् पर्याय में पहले शुद्धपद प्रगट था - ऐसा नहीं है। समझ में आया? वस्तु तो शुद्ध थी, वस्तु तो निज आनन्द और शुद्ध सत्ता, सत्त्व सम्पूर्ण सामर्थ्य वही है परन्तु उसकी दशा का ध्यान करने पर दशा में ध्यान करने पर उसकी दशा में वर्तमान अवस्था में - हालत में 'परु लद्धउ अप्पा' परमात्मरूपी दशा को उस आत्मा ने प्राप्त किया। आहा...हा...! समझ में आया? 'परु अप्पा लद्धउ' 'परु' अर्थात् उत्कृष्ट अर्थात् ? बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के तीन प्रकार हैं। उसमें यह परु' अर्थात् उत्कृष्ट जो परमात्म पद है, उसे प्राप्त किया। बहिरात्मा में तो पुण्य और पाप, शरीर वाणी को अपना माने, वह मूढ़ मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा है। जो उसकी वस्तु में नहीं है, उसकी चीज में नहीं है, और बाह्य में पुण्य और पाप के भाव तथा उसके बन्धन व फल, उसे अपना माने उसे बहिरात्मा-बहिर्दृष्टि - बाह्य आत्मा को माननेवाला - ऐसे मूढ़ को बहिरात्मा कहते हैं। अन्तर में आनन्द और शुद्ध हूँ - ऐसे पूर्णानन्द की जिसे प्रतीति हुई परन्तु पर्याय में अभी पूर्ण पर्याय प्रगट नहीं हुई, यह ऐसे जीव को पूर्ण स्वरूप शक्ति से पूर्ण हूँ- ऐसी प्रतीत अनुभव हुआ परन्तु पर्याय में - अवस्था में पूर्ण पर्याय प्रगट नहीं हुई, उसे अन्तरात्मा कहा जाता है। ___ इसके अतिरिक्त यहाँ तो कहते हैं, 'परु अप्पा लद्धउ' अब अन्तरात्मा भी नहीं। अन्तर के स्वरूप की एकाग्रता द्वारा जो उत्कृष्ट परमात्म पद को प्राप्त हुआ, उसका अर्थ - वह परमात्म पद की पर्याय नयी प्रगट हुई है। वह पर्याय अनादि की थी, अनादि की सिद्ध समान उसकी दशा थी, पर्याय में सिद्ध दशा थी, ऐसा नहीं है; वस्तु में सिद्ध शक्ति थी। समझ में आया? उसे प्राप्त किया। ते परमप्प णवेवि' ऐसे परमात्मा को, उसके उपाय द्वारा जिन्होंने निजपद की पूर्णदशा प्राप्त की - ऐसे परमात्मा को पहचान कर, ख्याल में लेकर, अपने लक्ष्य में लेकर ऐसे सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार करता हूँ। लो, यह पहला माङ्गलिक किया। 'समयसार' में भी यह लिया है, वहाँ भी सिद्ध को ही पहले लिया है। यहाँ सिद्ध को पहले
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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