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योगसार प्रवचन (भाग-१)
८९ नहीं पाता। अस्ति-नास्ति की है। पूर्णानन्द की दशा को प्राप्त करता है, वह संसार को प्राप्त नहीं करता। कहो, समझ में आया?
शीतलप्रसाद ने बीच में जरा ऐसा अर्थ किया है, हाँ! देखो, अपने ही शुद्ध आत्मा के श्रद्धान और ज्ञान में तपना, लीन होना, वह निश्चय तप है। ऐसा जरा किया है। थोड़ा सा ठीक करते हैं, यह फिर किया है, यह पता है, यह पता है। निमित्त का संयोग मिलाने से उपादान की प्रगटता होती है। यह सब ऐसा ही चलता है। अपने तो यह सुलटा-सुलटा ले लेना। समझ में आया? इन्हें निमित्त का मूल था सही न! निमित्त का संयोग मिलाने से.... मिलाता होगा? यह तो ऐसा कहना है कि वह बारह प्रकार के तप का विकल्प आता है न? ऐसा आता है, इतना... समझ में आया? फिर तो उसकी व्याख्या लम्बी की है, उसका कुछ नहीं। कहो, यह १३ गाथा हुई। तेरहवीं हुई न।
परिणामों से ही बन्ध व मोक्ष होता है परिणामे बंधुजि कहिउ मोक्ख वि तह जि वियाणि। इउ जाणेविणु जीव तुहुँ तह भावहु परियाणि॥१४॥ ‘बन्ध-मोक्ष' परिणाम से, कर जिन वचन प्रमाण।
अटल नियम यह जानके, सत्य भाव पहचान॥ अन्वयार्थ – (परिणामे बंधुजि कहिउ) परिणामों से ही कर्म का बन्ध कहा गया है (तह जि मोक्ख वि वियाणि ) वैसे ही परिणामों से ही मोक्ष को जान (जीव) हे आत्मन्! (इउ जाणेविणु) ऐसा समझकर (तुहुँ तह भावहु परियाणि) तू उन भावों को पहचान कर।
परिणामों से ही बन्ध व मोक्ष होता है। देखो यह गाथा समझने जैसी है। अभी बड़ी गड़बड़ चलती है न?