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________________ गाथा - १३ उपवास कहाँ है ? उप अर्थात् आत्मा में समीप में जाकर स्थिर होना, उसका नाम वास्तव में उपवास है। समझ में आया ? ८८ तउ लहु पावइ परम गई भाषा ऐसी है, क्योंकि जिसमें मोक्षस्वरूप भगवान आत्मा है, उसमें लीन होने से, लहु अर्थात् शीघ्र - अल्प काल में पावइ परम गई वह परम गति को पाता है। परम गति अर्थात् पूर्णानन्द मोक्षदशा को पाता है । उसे फिर चार गतियाँ नहीं होती और परम गति पाने के बाद उसे फिर से अवतरित नहीं होना पड़ता । कहो, समझ में आया ? ' तउ लहु पावइ परम गई पुण संसार ण एहि ' दो, अस्ति नास्ति की है। जिसने भगवान आत्मा ने शुद्धता के स्वभाव का विश्वास करके और विश्वास से उसमें रमकर और उसके द्वारा परमगति को प्राप्त किया, वह फिर से संसार प्राप्त नहीं करता । पुण संसार ण एहि, फिर निश्चय से कभी संसार में नहीं आयेगा...... ऐसा कहकर, जिसे परमगति प्राप्त हुई है, उसे फिर अवतार नहीं हो सकता । दुनिया के (लोग) कहते हैं न, भाई ! भक्तों की पीड़ा मिटाने को अवतार धारण करना पड़ता है, क्या कहलाता है ? राक्षसों को मारने के लिये ( अवतार ले ) - ऐसा स्वरूप नहीं है, वह वस्तु को नहीं समझता है । यहाँ अपने शुद्ध स्वरूप में स्थिरता करने से वापस नहीं फिरता और स्थिरता से पूर्ण मुक्ति होने पर वह वापस हटकर अवतरित हो, यह तीन काल में नहीं होता । कहो, समझ में आया ? अतीन्द्रिय आनन्द की पूर्णता में लीन हुआ, वह अतीन्द्रिय आनन्द में से वापस हटेगा ? हैं ? मक्खी जैसा (प्राणी) एक प्रकार की मिठास देखकर चिपटता है तो हटा नहीं। भले ही उसकी पंख चिपक जाये, शरीर में थोड़ा मर्दन (होये), शक्कर लेने से ऐसे हाथ में आ जावे परन्तु मिठास के कारण उसे छोड़ता नहीं है, वहाँ से उड़ता नहीं है; इसी प्रकार आत्मा अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप का जिसे पहले विश्वास आया है, विश्वास क्यों (आया है) ? ज्ञेय अर्थात् उसका ज्ञान करके कि यह आत्मा आनन्द और शुद्ध है - ऐसा ज्ञान करके जिसे विश्वास आया और विश्वास आकर उसमें से आनन्द प्रगट होगा, उसमें स्थिर होता है, लीन होता है, तपता है, लीनता करता है, उसे अल्प काल में मोक्ष स्वभाव ऐसा अपना उस पर्याय में पूर्णदशा को, मुक्ति को प्राप्त करता है । संसार ण एहि संसार
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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