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________________ गाथा-१३ मुमुक्षु – क्या पकड़ में आवे। उत्तर – यह कुछ करते हैं – ऐसा इसे लगता है। यहाँ तो सर्वज्ञ परमेश्वर तीर्थंकरदेव त्रिलोकनाथ परमात्मा, जिन्हें एक सेकेण्ड के असंख्य भाग में तीन काल का ज्ञान था। वे परमेश्वर वीतराग तीर्थंकर ऐसा फरमाते हैं, भाई ! यह आत्मा ज्ञानानन्द शुद्धस्वरूप पवित्र आनन्दस्वरूप है। उसमें स्थिर हो, लीन हो, उसे तप कहा जाता है। उसमें लीन हुआ तो इच्छा रुक गयी। इच्छा रुक गयी, स्वरूप में लीन हुआ, यह इसे मुक्ति का मार्ग कहा जाता है। कहो, समझ में आया? कहो, रतिभाई! क्या करना यह? इच्छा रहियउ तव करहि करहि'। यह भगवान आत्मा....! बहुत संक्षिप्त शब्दों में अकेला सार ही भरा है। योगसार है न? योग अर्थात् स्वरूप में जुड़ान करके स्थिर होना। यह भगवान आत्मा पूर्ण अतीन्द्रिय आनन्द की सत्ता के स्वभाव से भरपूर प्रभु, इसकी लालच में दृष्टि गयी, इच्छाओं की – शुभाशुभ की वृत्तियों को रोककर.... रोककर कहना, यह भी एक नास्ति से बात है। परन्तु स्वरूप में 'इच्छारहित' शब्द कहा है न? स्वरूप शुद्ध चैतन्य ज्ञायक की सत्ता का धाम, उसमें दृष्टि और स्थिरता करने से इच्छा रुक जाती है और स्वरूप में लीनता होती है, उसे यहाँ तप और धर्म कहा जाता है। समझ में आया? तप अर्थात् आहार नहीं खाना और अमुक दूध खाया और दही नहीं खाया, इसलिए तप हो गया – ऐसा नहीं है। यह सब लंघन है लंघन । यहाँ तो चारित्र की रमणता, वह तप है। समझ में आया? अनादि से ऐसे राग में रमता है। पुण्य-पाप के राग के विकल्प में रमता है, वह संसार है। समझ में आया? उस पुण्य-पाप के राग से हटकर, जिसमें पुण्य-पाप नहीं है - ऐसा भगवान आत्मा का स्वभाव, उसमें स्थिरता को वास्तव में मुक्ति का उपाय और तप कहते हैं। मुमुक्षु - आत्मा को जानने के बाद स्थिरता की बात है। उत्तर – जाने बिना स्थिरता कैसे करेगा?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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