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योगसार प्रवचन (भाग-१) वह तो राग की मन्दता हो तो उसमें मिथ्यात्वसहित पुण्य बाँधता है। जन्म-मरण का अन्त और धर्म का स्वरूप उसे नहीं कहा जाता है। कहो, समझ में आया?
इच्छा रहियउ तव नास्ति से बात की, फिर तप से, अस्ति से कही। भगवान आत्मा - ऐसा कहा न? अप्पा अप्प मुणेहि अपना शुद्ध वीतरागी वास्तविक स्वरूप निर्दोष अकषाय उसका स्वभाव, उसे जाने अर्थात् जानकर उसमें लीन होवे, उसका नाम इच्छारहित तप कहा जाता है। आहा...हा...!
मुमुक्षु - आत्मा के जाने बिना तप होता ही नहीं।
उत्तर – परन्तु आत्मा अर्थात् क्या? आत्मा अर्थात् रागरहित आत्मा। रागरहित आत्मा, उसके स्वभाव के ज्ञान बिना, उसमें स्थिरता कैसे होगी?
मुमुक्षु - धर्म तो है न?
उत्तर – धर्म किसे कहते हैं? धर्म कहना किसे? आत्मा परमानन्द आनन्द का भान हो, उस आनन्द में स्थिर हो, उसका नाम धर्म है। आत्मा में आनन्द है। अतीन्द्रिय आनन्द, मैं अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप हूँ - ऐसा जिसे ज्ञान नहीं, वह उसमें स्थिर कैसे होगा? आकर्षित कैसे होगा? अतीन्द्रिय आनन्द अपने में न भासित हो, वह उसमें आकर्षित और स्थिर कैसे होगा? जिसे पुण्य-पाप के परिणाम में ठीक लगता हो, वह वहाँ से हटेगा कैसे? समझ में आया? कहो, इसमें समझ में आता है या नहीं? रतिभाई!
अस्ति-नास्ति की है, देखो! इच्छा रहियउ और तव करहि – ऐसा कहा है न। तव करहि अस्ति है और इच्छा रहियउ नास्ति है। अर्थात् क्या कहा? कि भगवान अस्ति स्वरूप से पहले कहा है, कि हे आत्मा! अप्प मुणेहि आत्मा ज्ञान, चैतन्य, दर्शन, आनन्द, निर्दोष पूर्ण अनन्त स्वभाव पिण्ड ऐसा भगवान, उसे जान। क्यों? कि वह इच्छारहित चीज है और इच्छारहित चीज है, उसमें इच्छा को टालकर, स्वरूप ऐसा शक्ति से वीतराग है, उसमें स्थिर हो, उसे अस्तिरूप तप कहा जाता है। समझ में आया? बहुत सूक्ष्म बात पड़ती है, भाई! उपवास करना हो, अन्य करना हो तो एकदम पकड़ में भी आवे... लो!