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गाथा-१३
अशुभ इच्छा जो राग, उसे रोककर और अपने शुद्धस्वरूप में तप अर्थात् लीनता करे, अपने शुद्ध पवित्रस्वरूप में तपना अर्थात् लीन होना, उसे यहाँ तप कहा जाता है। समझ में आया?
___ इच्छारहित.... इच्छा अर्थात् शुभाशुभरागरहित अर्थात् आत्मा शुद्ध पवित्रस्वरूप है। पुण्य-पाप के रागरहित ऐसे स्वभाव का ज्ञान करके और उस स्वभाव में पुण्य-पाप की इच्छा को रोककर स्वरूप में लीन हो, उसे यहाँ तप कहा जाता है। इस तप से आत्मा की मुक्ति होती है।
मुमुक्षु – खूब करते हैं। उत्तर – कौन करते हैं? मुमुक्षु - अपने पर्दूषण आवे तब करते हैं।
उत्तर - वह सब लंघन करते हैं। लंघन करते हैं लंघन । सेठ! इस पर्दूषण में सब क्या करते हैं?
इच्छा रहियउ तव करहि यह शब्द क्या है ? आत्मा वस्तुस्वरूप से इच्छारहित है। आत्मा ज्ञानानन्दस्वरूप अनन्त आनन्द की मूर्ति आत्मा है। उसमें इच्छा ही नहीं; अतः उसमें इच्छा नहीं तो इच्छा जो है, उसकी ओर का आश्रय-लक्ष्य-रुचि छोड़कर और जिसमें इच्छा नहीं है, ऐसा आत्मा, अनन्त ज्ञान-दर्शन आनन्द (स्वरूप है), उसकी श्रद्धा ज्ञान और लीनता.... उसमें लीनता शुद्धस्वरूप में शुद्धोपयोगरूपी लीनता, शुद्धस्वभाव में शुद्ध आचरणरूपी तपना, उसे संवर और निर्जरा होते हैं। कहो, समझ में आया? अशुभभाव होवे तो पाप होता है; शुभभाव – दया, दान होवे तो पुण्य होता है, वह धर्म नहीं है। समझ में आया? इच्छा रहियउ तव करहि तप अर्थात् आत्मा की लीनता। दूसरी भाषा में कहें तो वीतरागता में लीनता और राग का अभाव। समझ में आया? इच्छारहित अर्थात् सरागता का अभाव और तप अर्थात् शुद्धता में लीनता; शुद्धता में लीनता और शुभाशुभ परिणाम का अभाव, उसे यहाँ मुक्ति का कारण तप कहा जाता है। अद्भुत व्याख्या, भाई! कहो समझ में आया?
आत्मा शुद्ध चिदानन्दस्वरूप आनन्दमूर्ति के भान बिना अकेले उपवासादि करे,