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इच्छारहित तप ही निर्वाण का कारण है
अप्पा
इच्छारहिउ तव करहि मुणेहि । तउ लहु पावइ परमगइ पुण संसार ण एहि ॥ १३ ॥
बिन इच्छा शुचि तप करे, जाने निज रूप आप ।
सत्वर पावे परम पद, लहे न पुनि भवताप ॥
अन्वयार्थ – (अप्पा) हे आत्मा ! ( इच्छा रहियउ तव करहि ) यदि तू इच्छा रहित होकर तप करे (अप्प मुणेहि ) व आत्मा का अनुभव करे ( तउ लहु परमगइ पावइ) तो तू शीघ्र ही परम गति को पावे (पुण संसार ण एहि ) फिर निश्चय से कभी संसार में नहीं आवे ।
वीर संवत २४९२ ज्येष्ठ कृष्ण ८,
गाथा १३ से १५
शनिवार, दिनाङ्क ११-०६-१९६६ प्रवचन नं. ५
यह योगसार शास्त्र है। योगीन्द्रदेव एक मुनि हुए हैं, दिगम्बर सन्त ! उन्होंने आत्मा के अन्तर-योग अर्थात् व्यापार, उसका सार वर्णन किया है। जिससे आत्मव्यापार से कल्याण और मुक्ति होती है । बारह गाथा हो गयी है, तेरहवी – इच्छारहित तप ही निर्वाण का कारण है । तेरहवीं गाथा ।
तव करहि
इच्छाह
अप्पा
हि ।
तउ लहु पावइ परमगइ पुण संसार ण एहि ॥ १३ ॥
अप्पा अर्थात् आत्मा.... इच्छारहित तप करके... कर्ता स्वयं आत्मा, आत्मा को
जाने । क्या कहते हैं ? आत्मा अपने शुद्ध आनन्द पवित्रस्वरूप को जानकर और शुभ