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गाथा - १२
ज्ञानानन्द शुद्ध अस्तिपने जाना तो अस्तिपने अकेला निर्मलानन्द मुक्ति में रह गया । आत्मा परपने जाने पर अप्पा जउ मुणिहि (पर) पदार्थ को आत्मा मानेगा। तहु तहुँ संसार
हि । तो तू जिसे निज मानता है, वह चीज संसार है। विकार, पर वह संसार है, उसे अपना मानकर उसी - उसी में रहेगा और संसार में रहेगा। समझ में आया ? आरे....! ऐसी बात कठिन पड़ती है। ऐसी (बात) पहले सुनी थी ? अब इन ने रस लिया, यहाँ उसमें लड़के बैठे.... कहा ठीक किया यह । समझ में आया ? ए... वासुदेवभाई ! देखो, यह बात करते हैं। देखो, यह।
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पर अप्पा जउ मुणिहितहु तहुं । तो तू । संसार भमेहि यदि विकार को, शरीर को कर्म को - जो स्वरूप में नहीं है उन्हें, उनके अस्तित्व में तेरा अस्तित्व माना, बस ! वह छूटेगा नहीं अर्थात् उसमें भटकेगा। इसका नाम संसार, इसका नाम संसार समझ में आया ? मुक्ति और संसार दोनों की बात एक गाथा में समाहित कर दी है।
( श्रोता
प्रमाण वचन गुरुदेव !)
मुनिराज को शरीर मुरदे के समान
अहो! यह तो परम उदासीन दशा की बात है। जैसे कछुआ भयभीत होने पर अपने पैरों और मुख को पेट में सिकोड़ लेता है, वैसे ही मुनिदशा इन्द्रियों से सङ्कुचित होकर स्वभाव में ढल जाती है। मुनिराज अपने स्वभाव में गुप्त हो जाते हैं। उनके शरीर के रजकण मुरदे जैसा काम करते हैं, क्योंकि उनके प्रति मुनिराज का स्वामित्व उड़ गया है। ऐसे सन्तों को शरीर की रक्षा करने का या उसे ढाँकने का भाव नहीं रहता । अहो ! जब आत्मा की ऐसी दशा प्रगट हो, वह धन्य पल है ! धन्य काल है !! धन्य भाव है !!! - पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी